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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
यदि कही हुई होती तो संसार से पार हो गये होते । अन्त में धर्म भावना में यह बताते हैं कि अत्यन्त दुर्लभ रत्नत्रयरूप धर्म की आराधना ही इस मनुष्यभव का सार है। मनुष्यभव की सार्थकता एकमात्र त्रिकाली ध्रुव आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयधर्म की प्राप्ति में ही है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि बारह भावनाओं की यह चिन्तनप्रक्रिया अपने आप में अद्भुत है, आश्चर्यकारी है। बस, आज इतना ही, शेष फिर। ॐ नमः
१. बृहदद्रव्यसंग्रह टीका, गाथा- ३५
३. समयसार गाथा ७३
७. पण्डित भागचन्दजी
१०. युगलजी
२. पण्डित जयचन्द छाबड़ा
४६. पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ८- ९. पण्डित दौलतरामजी
ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं
आप त अरु पर को तारैं, निष्पृही निर्मल हैं। ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं ।। १ ।। तिल तुष मात्र संग नहिं जिनके, ज्ञान-ध्यान गुण बल हैं। ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं ॥२॥ शांत दिगम्बर मुद्रा जिनकी, मन्दर तुल्य अचल हैं। ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं ||३|| 'भागचन्द' तिनको नित चाहें, ज्यों कमलनि को अलि हैं। ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं ॥४॥
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१५.
आचार्यश्री ने चातुर्मास के अन्तिम प्रवचन में कहा- “जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग सुनिश्चित है; क्योंकि संयोग का वियोग के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है। दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं।'
जो व्यक्ति जितने जल्दी इस परम सत्य को समझ लेगा, स्वीकार कर लेगा वह उतने जल्दी संभल जायेगा। फिर वह संयोगों में उलझकर संयोगीभाव (राग-द्वेष) नहीं करेगा। अपनी प्राप्त पर्याय की सुविधाओं का आत्महित में सदुपयोग कर लेगा । अन्यथा शेष जीवन भी यों ही कमाने-खाने और मौज-मस्ती में, ऐसो आराम में बिना भावी जन्म की योजना बनाये व्यतीत हो जायेगा। फिर यह जीव संसार सागर की चौरासी लाख योनियों में अनन्तकाल तक गोते खाता रहेगा।
हमें पता नहीं कि हमारे जीवन रूपी खिलौने में और कितनी चाबी शेष है, यह खिलौना चलते-चलते कब बंद हो जायेगा? किसी ईश्वरवादी कवि ने कितना अच्छा सिद्धान्त समझाया है- 'जितनी चाबी भरी राम ने उतना चले खिलौना' कितना प्रभावी है यह पद्य; परन्तु हम इसे एक सिने कलाकार की बात समझकर यों ही हंस कर हवा में उड़ा देते हैं। इस पर गंभीरता से विचार कर शेष जीवन को सार्थक करने की कोशिश नहीं करते ।
अब हमें अपने जीवन को पानी के बुलबुले की भाँति क्षणभंगुर मानकर एक क्षण खोए बिना अगले जन्म के बारे में भी सोचना होगा।
देखो, अनुकूल संयोगों में हम जितने हर्षित होते हैं, उन संयोगों के वियोग में उतना ही दुःख होता है। चार माह पूर्व जब मुनिसंघ का आगमन हुआ था, तब आप लोग हर्ष से फूले नहीं समाये । वे चार माह कब / कैसे बीत गये? कुछ पता ही नहीं चला। इस मंगलमय सु-अवसर