________________
१७०
चलते फिरते सिद्धों से गुरु जिनेन्द्रदेव ने जो अहिंसापरमोधर्मः बताकर धर्म का लक्षण अहिंसा कहा है, सत्य उसका आधार है, विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से वह रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रहरहितपना उसका आलम्बन है। इसकी प्राप्ति नहीं होने से दुष्कर्म-विपाक से उत्पन्न खोटे कर्म के फल स्वरूप दुःख को अनुभव करते हुए जीव अनादि संसार में परिभ्रमण करते हैं और इसका लाभ होने पर नानाप्रकार के अभ्युदयों की प्राप्तिपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है - ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्त्वानुप्रेक्षा है। भूधरदासजी कृत बारह भावना में कहा है कि - याचे सुरतरु देय सुख, चिन्तन चिन्ता रैन ।
बिन याचे बिन चिंतबे, धर्म सकल सुख दैन ।। कल्पवृक्ष याचना करने पर फल देते हैं, चिन्तामणि रत्न से फल प्राप्त करने के लिए उसका चिन्तन करना पड़ता है, परन्तु धर्म बिना मांगे और बिना चिन्तन किए ही सब प्रकार से सुखद है।
धर्मानुप्रेक्षा का प्रयोजन बताते हुए पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि धर्मानुप्रेक्षा का चिन्तवन करनेवाले इस जीव का धर्मानुरागवश उसकी प्राप्ति के लिए सदा यत्न होता है।
अन्त में उपर्युक्त सभी चिन्तन के फलस्वरूप प्राप्तव्य धर्म का चिन्तन प्रस्तुत करते हुए डॉ. भारिल्ल ने बारह भावना अनुशीलन में कहा है -
अनित्य भावना में मरण की बात को सुनकर यह रागी प्राणी सुरक्षा के अनेक उपाय करता है। जब यह अपने मरणादि को टालने के उपायों का विचार करता है, तब अशरण भावना में यह बताया जाता है कि वियोग होना संयोगों का सहज स्वभाव है, उन्हें रोकने का कोई उपाय नहीं है। कोई ऐसी दवा नहीं, मणि-मंत्र-तंत्र नहीं, जो तुझे या तेरे पुत्रादि को मरने से बचा लें।
बारह भावना : विशेष विवेचन
___१७१ तब यह सोच सकता है कि न सही ये संयोग, दूसरे संयोग तो मिलेंगे ही, तब इसे संसार भावना के माध्यम से समझाते हैं कि संयोगों में कहीं भी सुख नहीं है, सभी संयोग दुःखरूप ही हैं। तब यह सोच सकता है कि मिल-जुलकर सब भोग लेंगे, उसके उत्तर में एकत्व भावना में दृढ किया जाता है कि दुःख मिल-बाँटकर नहीं भोगे जा सकते, अकेले ही भोगने होंगे। इसी बात को नास्ति से अन्यत्व भावना में दृढ किया जाता है कि कोई साथ नहीं दे सकता । जब यह शरीर ही साथ नहीं देता तो स्त्री-पुत्रादि परिवार तो क्या साथ देंगे?
अशुचि भावना में कहते हैं कि जिस देह से तू राग करता है, वह देह अत्यन्त मलिन है, मल-मूत्र का घर है।।
इसप्रकार प्रारम्भ की छह भावनाओं में संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न किया जाता है, जिससे यह आत्मा आत्महितकारी तत्त्वों को समझने के लिए तैयार होता है। इन भावनाओं में देहादि परपदार्थों से आत्मा की भिन्नता का ज्ञान कराके भेदविज्ञान की प्रथम सीढी भी पार करा दी जाती है।
जब यह आत्मा शरीरादि परपदार्थों से विरक्त होकर गुण-पर्यायरूप निजद्रव्य की सीमा में आ जाता है, तब आस्रव भावना में आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मिथ्यात्वादि कषायभावों का स्वरूप समझाते हैं। यह बताते हैं कि आस्रवभाव दुःखरूप हैं, दु:ख के कारण हैं, मलिन हैं और भगवान आत्मा सुखस्वरूप है, सुख का कारण है एवं अत्यन्त पवित्र है।
इसप्रकार आस्रवों से भी दृष्टि हटाकर संवर-निर्जरा भावना में अतीन्द्रिय आनन्दमय संवर-निर्जरा तत्त्वों का परिज्ञान कराते हैं, उन्हें प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं। फिर लोकभावना में लोक का स्वरूप बताकर बोधिदुर्लभ भवना में यह बताते हैं कि इस लोक में एक रत्नत्रय ही दुर्लभ है और सब संयोग तो अनन्तबार प्राप्त हुए, पर रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हुई,
86