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बारह भावना : विशेष विवेचन
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चलते फिरते सिद्धों से गुरु होना तो बोधि कहलाता है और उन्हीं सम्यग्दर्शनादिकों को निर्विघ्न अन्य भव में साथ ले जाना, सो समाधि है।
बोधिदुर्लभभावना भावना में रत्नत्रयरूप बोधि को कहीं सुलभ तो कहीं दुर्लभ बताया गया है - इसका मूल प्रयोजन यह है कि यह आत्मा इस षद्रव्यमयी विस्तृत लोक से दृष्टि हटाकर ज्ञानानन्दस्वभावी निजलोक को जानकर-पहिचानकर, उसी में जम जाने, रम जानेरूप रत्नत्रयरूप धर्मदशा को शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त कर अनन्त सुखी हो। ___अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम उपलब्ध मनुष्यपर्याय की दुर्लभता का भान कराया जाता है और फिर उसकी सार्थकता के लिए रत्नत्रय प्राप्त करने की प्रेरणा देने के लिए रत्नत्रय की दुर्लभता का भान कराया जाता है। तदर्थ भरपूर प्रेरणा भी दी जाती है। साथ ही संयोग अनेक बार उपलब्ध हो गये हैं - यह बताकर उनके प्रति विद्यमान आकर्षण को कम किया जाता है।
किन्तु जब यह जीव बोधिलाभ को अत्यन्त कठिन मानकर अनुत्साहित होकर पुरुषार्थहीन होने लगता है, तो उसके उत्साह को जागृत रखने के लिए उसकी सुलभता का ज्ञान भी कराया जाता है। __ अत: बोधि की दुर्लभता और सुलभता - दोनों एक ही उद्देश्य की पूरक हैं। बोधिलाभ स्वाधीन होने से सुलभ भी है और अनादिकालीन अनुपलब्धि एवं अनभ्यास के कारण दुर्लभ भी है।
तात्पर्य यह है कि बोधिदुर्लभभावना में बोधि की दुर्लभता बताकर उनकी प्राप्ति के लिए सतर्क किया जाता है और सुलभता बताकर उसके प्रति अनुत्साह को निरुत्साहित किया जाता है। ___ इसप्रकार हम देखते हैं कि बोधिदुर्लभभावना के चिन्तन में दोनों पक्ष समानरूप से उपयोगी हैं, आवश्यक हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं। ___ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा का विचार करनेवाले इस जीव को बोधि प्राप्त होने पर कभी प्रमाद नहीं होता।
इस सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को संसार की समस्त दुर्लभ वस्तुओं से भी दुर्लभ जानकर इन तीनों का महा आदर करना चाहिए।
दुर्लभ परद्रव्यनि को भाव, सो तोहि दुर्लभ है सुनि राव।
जो है तेरो ज्ञान अनन्त, सो नहिं दुर्लभ सुनो महन्त ।। अर्थात् पदार्थों की प्रवृत्ति अपने आधीन न होने से परद्रव्यों के भाव ही वस्तुतः दुर्लभ हैं। हे आत्मन्! तेरा जो अनन्तज्ञानरूप भाव है, वह किसी भी रूप में दुर्लभ नहीं है।
१२. धर्मानुप्रेक्षा - निज भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का बारम्बार विचार/चिन्तन करना धर्म भावना या धर्मानुप्रेक्षा है।
जीव निश्चयनय से सागार और अनगार अर्थात् श्रावक और मुनिधर्म से बिलकुल जुदा है, इसलिए राग-द्वेषरहित मध्यस्थ परिणामों से शुद्ध स्वरूप आत्मा का ही सदा चिन्तन करना चाहिए।
समता, माध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र और स्वभाव की आराधना - इन सबको धर्म कहा जाता है।
जो भावमोह तैं न्यारे, दृग ज्ञान व्रतादिक सारे ।
सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै।। दर्शनमोह व चारित्रमोह से भिन्न जो आत्मा के दर्शन-ज्ञान-चारित्रभाव हैं, वे ही धर्म हैं। जब यह जीव इन धर्मों को धारण करता है तभी अचल सुख को प्राप्त करता है -
दर्श ज्ञानमय चेतना, आतम धर्म बखान ।
दया क्षमादिक रतनत्रय, यामें गर्भित जानि ।। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि - जिनदेव ने कहा है कि श्रावकों और मुनियों का धर्म सम्यक्त्वसहित होता है। जो जीव श्रावकधर्म को छोड़कर मुनियों के धर्म का आचरण करता है, वह अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त करता है।
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