________________
बारह भावना : विशेष विवेचन
१६०
चलते फिरते सिद्धों से गुरु पाप को पाप तो सारा जगत जानता है; ज्ञानी तो वह है, जो पुण्य को भी पाप जाने । तात्पर्य यह है कि जो पापासव के समान पुण्यास्रव को भी हेय मानता है, वही ज्ञानी है। पण्डित जयचन्दजी कहते हैं -
आतम केवलज्ञानमय, निश्चय दृष्टि निहार ।
सब विभाव परिणाम मय, आस्रव भाव विडार ।। व्यवहारनयपरक आस्रवानुप्रेक्षा में साधक यह चिंतवन करता है कि कर्मों का आस्रव करनेवाली क्रिया से परम्परा से भी निर्वाण नहीं हो सकता है, इसलिए संसार में भटकानेवाले आस्रव हेय हैं।
आस्रवभाव इस लोक और परलोक में दु:खदायी हैं। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इन्द्रिय, कषाय और अव्रतरूप हैं। कषाय आदि भी इस लोक में, वध, बन्ध, अपयश और क्लेशादिक दुःखों को उत्पन्न करते हैं तथा परलोक में नानाप्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इसप्रकार आस्रव के दोषों को चिन्तवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। भूधरदासजी कृत बारह भावना में कहा कि -
मोह नींद के जोर, जगवासी घूमे सदा।
कर्मचोर चहुँ ओर, सरवस लूटे सुध नहीं।। आस्रवभाव दु:ख स्वरूप हैं, तथा आस्रवभावना के चिन्तन से आस्रवभाव का अभाव होकर संवर होता है। तत्त्वार्थसूत्र में भी बारह भावनाओं को संवर का कारण कहा है, अत: आस्रवभावना भी संवर की कारण सिद्ध हुई। वास्तव में आस्रवभावना के अन्तर्गत आस्रव के स्वरूप का अच्छी तरह चिन्तन करके आस्रवभाव के त्याग की भावना भायी जाती है। ____ जो मुनि साम्यभाव में लीन होता हुआ मोहकर्म के उदय से होनेवाले इन आस्रवभावों को त्यागने के योग्य जानकर उन्हें छोड़ देता है, उसी की आस्रवानुप्रेक्षा सफल है।
जीव जब तक आत्मा और आस्रव - इन दोनों के अन्तर और भेद को नहीं जानता, तब तक वह अज्ञानी रहता हुआ क्रोधादिक आस्रवों में वर्तता है; क्रोधादिक में प्रवर्तमान उसके कर्म का संचय होता है। वास्तव में इसप्रकार जीव के कर्मों का बंध सर्वज्ञदेवों ने कहा है। जब यह जीव आत्मा का और आस्रवों का अन्तर और भेद जानता है, तब उसे बन्ध नहीं होता।
आस्रवतत्त्व में जो हिंसादिरूप पापास्रव हैं, उन्हें तो हेय जानता है तथा जो अहिंसादि पुण्यास्रव हैं, उन्हें उपादेय मानता है; परन्तु यह तो दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं, इनमें उपादेयपना मानना ही मिथ्यादृष्टि है।
यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम आत्मा और आत्मा की ही पर्याय में उत्पन्न मोह-राग-द्वेषरूप-पुण्य-पापरूप आस्रवभावों की परस्पर भिन्नता भली-भाँति जानें, भली-भाँति पहिचानें तथा आत्मा के उपादेयत्व एवं आस्रवों के हेयत्व का निरन्तर चिन्तन करें, विचार करें; क्योंकि निरन्तर किया हुआ यही चिन्तन, यही विचार आस्रव-भावना है।
ध्यान रहे, उक्त चिन्तन, विचार तो व्यवहार-आस्रव भावना है। निश्चय-आस्रव भावना तो आस्रवभावों से भिन्न भगवान आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान व ध्यानरूप परिणमन है।
८. संवरानुप्रेक्षा - आस्रव का विरोध करना संवर है। यह संवर सुखस्वरूप है, सुख का कारण है तथा मोह-राग-द्वेष से विपरीत, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रमय है, रत्नत्रयस्वरूप है। मोक्ष का कारण है।
निश्चयगुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र - ये सभी संवर के कारण हैं । इस संवर से नवीन कर्म आने से रुकते हैं। जबकि व्यवहार गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से मात्र पाप का संवर होता है और पुण्यबंध होता है। इसप्रकार विचार करना संवर भावना है।
81