________________
चलते फिरते सिद्धों से गुरु
जो जीव परमार्थ से अपने स्वरूप से देह को भिन्न जानकर आत्मस्वरूप को सेता है, ध्यान करता है, उसके अन्यत्व भावना कार्यकारी है।
मेरे पुत्र हैं, मेरा धन है ऐसा अज्ञानी जन कहते हैं। इस संसार में जब शरीर ही अपना नहीं, तब पुत्र धनादि कैसे अपने हो सकते हैं ? कहा भी है
जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपनो कोय । घर सम्पत्ति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय ।। " तथा -
१५८
जल-पय ज्यौं जिय तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला ।
तो प्रकट हुए धन जामा, क्यों है इक मिलि सुतरामा ।।' इस अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन यह है कि इसके चिन्तन से शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और वैराग्य की वृद्धि होने पर मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।
जो आत्मस्वरूप को यथार्थ में शरीर से भिन्न जानकर अपनी आत्मा काही ध्यान करता है, उसके अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है।
जा तन में नित जिय वसै, सो न आपनो होय । तो प्रत्यक्ष जो पर दरब, कैसे अपने होय ।।
अर्थात् जिस शरीर में जीव नित्य रहता है, जब वह शरीर ही अपना नहीं होता, तब जो परद्रव्य प्रत्यक्ष पर है, वे अपने कैसे हो सकते हैं ?
मेरे न हुए ये, मैं इनसे, अति भिन्न अखण्ड निराला हूँ। निज में पर से अन्यत्य लिये, निज समरस पीनेवाला हूँ।। " व्यवहारनयपरक अन्यत्वानुप्रेक्षा में यह कहा है कि माता-पिता, भाई, स्त्री आदि बन्धुजनों का समूह अपने कार्य के वश संबंध रखता है, परन्तु यथार्थ में जीव का इनसे कोई संबंध नहीं है अर्थात् ये सब जीव से जुदे हैं।
80
बारह भावना: विशेष विवेचन
६. अशुचि अनुप्रेक्षा - वैराग्यभाव के उद्देश्य से देह के अपावनस्वरूप के चिन्तनपूर्वक निज स्वभाव की पवित्रता का चिन्तन करना ही अशुचिअनुप्रेक्षा है। वास्तव में आत्मा देह से जुदा है, कर्मों से रहित है, अनन्त सुखों का घर है, इसलिए शुद्ध है, इसप्रकार निरन्तर भावना करते रहना यह अशुचिभावना का निश्चयपरक चिन्तन है । जयचन्दजी छाबड़ा कहते हैं -
१५९
निर्मल अपनी आतमा, देह अपावन गेह । जानि भव्य निज भाव को, या सो तजो सनेह ।।
जल में सेवाल (काई) है सो मल है या मैल है, उसे सेवाल की भांति आस्रव मलरूप या मैलरूप अनुभव में आते हैं, इसलिए वे अशुचि हैंअपवित्र हैं और भगवान आत्मा तो सदा ही अतिनिर्मल चैतन्यमात्र स्वभावरूप से ज्ञायक है, इसलिए अत्यन्त शुचि ही है, पवित्र ही है ।
व्यवहारनयपरक अशुचि-अनुप्रेक्षा में देह को दुर्गन्धमय, डरावनी, मलमूत्र से भरी, जड़ कहा है और क्षीण होनेवाली तथा विनाशीक स्वभाव वाली कहा है; इसतरह निरन्तर इसका विचार करना व्यवहार अशुचि भावना है।
७. आस्रवानुप्रेक्षा - आस्रवभाव अशुचि हैं, विपरीत हैं, अध्रुव हैं, अनित्य हैं, अशरण हैं, दुःख के कारण हैं, दुःखरूप हैं और दुःख फलवाले हैं- ऐसा विचार करना तथा शुभाशुभ आस्रवभावों से भिन्न भगवान आत्मा अत्यन्त शुचि है, अविपरीत स्वभाववाला है, ध्रुव है, नित्य है, परमशरणभूत है, सुख का कारण है, सुख स्वरूप है और सुख रूप ही फलवाला है - ऐसा चिन्तवन करना ही यथार्थ आस्रवानुप्रेक्षा है। पण्डित दौलतरामजी कहते हैं कि -
जो योगन की चपलाई, तातैं है आस्रव भाई । आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवंत तिन्हें निरवेरे ।।