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चलते फिरते सिद्धों से गुरु भोगता हूँ; न कोई मेरा स्व है और न कोई पर है; अकेला ही मैं जन्मता हूँ, अकेला ही मरता हूँ; मेरा कोई भी स्वजन या परिजन, व्याधि, जरा और मरण आदि के दुःखों को दूर नहीं करता; बन्धु और मित्र श्मशान से आगे नहीं जाते। बस ! धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला नित्य सहायक है। इसप्रकार चिन्तवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है।
समयसार, वृहद्र्व्यसंग्रह टीका, बारसाणुवेक्खा आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों में निश्चय से आत्मा के अनन्त गुणात्मक एकत्व स्वरूप को आधार बनाकर एकत्वभावना का विचार किया गया है, जबकि सर्वार्थसिद्धि, मूलाचारप्रदीप, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में एकत्व भावना के व्यावहारिक पक्ष को प्रगट किया गया है।
निश्चयनयपरक एकत्वानुप्रेक्षा का स्वरूप बताते हुए कहा है कि 'मैं एक हूँ, ममतारहित हूँ, शुद्ध हूँ और ज्ञान-दर्शनस्वरूप हूँ, इसलिए शुद्ध एकपना ही उपादेय है - ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए।
एकत्वनिश्चय को प्राप्त समय ही लोक में सब जगह सुन्दर है; एकत्व में दूसरे के साथ बन्ध की कथा विसंवाद-विरोध करनेवाली है। इसलिए एक आत्मा का ही आश्रय लेने योग्य है।
"परमारथ तैं आत्मा, एक रूप ही जोय।
मोह निमित्त विकलप घने, तिन नासे शिव होय ।। एकत्व भावना में कहा है कि यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बाँधता है, अकेला ही दीर्घ संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है, अन्य कोई इसका साथी नहीं है।" "जीव तू भ्रमत सदैव अकेला, संग साथी नहीं कोई तेरा। अपना सुख-दुःख आपहि भुगते, होत कुटुम्ब न भेला। स्वार्थ भय सब बिछरि जात हैं, विघट जात ज्यों मेला ।। जीव तू.।
बारह भावना : विशेष विवेचन
१५७ जीवन-मरण, सुख-दु:ख आदि प्रत्येक स्थिति को जीव अकेला ही भोगता है, किसी भी स्थिति में किसी का साथ सम्भव नहीं है। वस्तु की इसी स्थिति का चिन्तन एकत्व भावना में गहराई से किया जाता है।"५
एक बात और भी है कि इस दु:खमय संसार में कहने के साथी तो बहुत मिल जायेंगे, पर सगा-साथी-वास्तविक, साथी कोई नहीं होता; क्योंकि वस्तुस्थिति के अनुसार कोई किसी का साथ दे नहीं सकता। ___ एकत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन बताते हुए कहा है कि ‘एकत्वानुप्रेक्षा का चिन्तवन करते हुए इस जीव का स्वजनों में प्रीति का अनुबंध नहीं होता
और परजनों में द्वेष का अनुबंध नहीं होता; इसलिए वह जीव नि:संगता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है।'
पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न एक जीव को जानो। उस जीव को जान लेने पर क्षण-भर में ही शरीर, मित्र, स्त्री, धन, धान्य, वगैरह सभी वस्तुएँ हेय हो जाती हैं।
५. अन्यत्वानुप्रेक्षा - शरीरादि बाह्य द्रव्य भी सब अपने से जुदे हैं और मेरा आत्मा ज्ञानदर्शनस्वरूप है, इसप्रकार अन्यत्व भावना का चिन्तवन करना ही अन्यत्वानुप्रेक्षा है।
निश्चयनयपरक अन्यत्वानुप्रेक्षा का कथन करते हुए कहा है कि शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। बन्ध की अपेक्षा अभेद होने पर भी लक्षण के भेद से 'मैं शरीर से अन्य हँ', शरीर ऐन्द्रियक है, मैं अतीन्द्रिय हैं। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ। शरीर आदि-अन्तवाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए भूतकाल से मैंने लाखों शरीर धारण किये हैं, परन्तु मैं उनसे भिन्न ही हूँ। इसप्रकार शरीर से ही जब मैं अन्य हूँ, तब हे वत्स ! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ तो इसमें क्या आश्चर्य है ? इसप्रकार मन का समाधान होने पर शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती।
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