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चलते फिरते सिद्धों से गुरु साथ नहीं जाता। सुख-दु:ख के मित्र भी मरण के समय रक्षा नहीं कर सकते । बन्धुजन भी रोगों से घिरे जीव की रक्षा करने में असमर्थ होते हैं। एकमात्र वीतराग धर्म ही शरण है। अन्य कुछ भी शरण नहीं है; इसप्रकार की भावना करना अशरणानुप्रेक्षा है।
श्रोता विनयपूर्वक पूछता है - अशरणानुप्रेक्षा में पंचपरमेष्ठी एवं धर्म को शरण कहा गया है तो क्या मृत्युकाल आने पर वे इसे बचाते हैं ? ___आचार्यश्री ने कहा - "भाई ! पंचपरमेष्ठी अथवा धर्म की शरण का आशय यह नहीं है कि वे मृत्युकाल अथवा रोगादि का अभाव कर देते हैं
और न ज्ञानियों द्वारा इस उद्देश्य से उनकी शरण अंगीकार की जाती है। बात इतनी-सी है कि पंचपरमेष्ठी अथवा निज शुद्धात्मा के आश्रय से मृत्युकाल अथवा रोगादि की दशा में होनेवाले आकुलता-व्याकुलतारूप आर्तपरिणाम नहीं होते, यही उनकी शरण का प्रयोजन भी है। मरण अथवा रोगादिरूप अवस्था तो जब, जैसी होनी है, होकर ही रहती है; उसे टालने में तो इन्द्र, अहमिन्द्र और जिनेन्द्र भी समर्थ नहीं है।
अशरण भावना का मूल प्रयोजन संयोगों और पर्यायों की अशरणता का ज्ञान कराकर दृष्टि को वहाँ से हटाकर स्वभाव-सन्मुख ले जाना है। इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए संयोगों और पर्यायों को अशरण बताया जाता है और इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी को शरणभूत या परम शरण बताया जाता है।
निज आत्मा ही शरण है; उसके अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है। कोई जीव अन्य जीव की रक्षा करने में समर्थ नहीं है, इसलिए पर से रक्षा की आशा करना व्यर्थ है। सर्वत्र-सदैव एक निज आत्मा ही अपना शरण है। आत्मा निश्चय से मरता ही नहीं, क्योंकि वह अनादि-अनन्त है; ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिन्तवन करके सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, यह अशरण भावना है।
३. संसारानुप्रेक्षा - चतुर्गति परिभ्रमणरूप दु:खों के एवं पंच-
बारह भावना : विशेष विवेचन
१५५ परावर्तनरूप संसार के दुःखों के चिन्तन पूर्वक संसार की असारता तथा निज ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा का साररूप चिन्तन करना संसार अनुप्रेक्षा है। छहढाला में कहा है कि -
चहुँगति दुख जीव भरे हैं, परिवर्तन पंच करें हैं।
सब विधि संसार असारा, यामे सुख नाहिं लगारा।। बारसाणुवेक्खा गाथा २४ में कहा है कि “यह जीव जिनमार्ग की ओर ध्यान नहीं देता हुआ जन्म, जरा, मरण, रोग और भय से भरे हुए पंचपरावर्तन रूप संसार में अनादिकाल से भटक रहा है - ऐसा विचार कर जिनमार्ग में कहे आत्मा के स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए। ___ पूज्यपादस्वामी ने जो कहा उसका सार यह है कि - "कर्म-विपाक के वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है। उसका पाँच प्रकार के परिवर्तनरूप से व्याख्यान होता है। उसमें अनेक योनियों और लाखों-करोड़ों कुलों से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयंत्र से प्रेरित होकर स्वयं का ही पिता, भाई, पुत्र और पौत्र हो जाता है; माता, भगिनी, भार्या और पुत्री होता है; स्वामी दास हो जाता है तथा दास स्वामी हो जाता है। जिसप्रकार रंगस्थल में नट नानारूप धारण करता है, उसीप्रकार यह जीव भी नाना योनियों में जन्म-मरण करता है। बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र भी हो जाता है। इत्यादि रूप से संसार के स्वभाव का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ७३ में कहा है कि 'हे जीव ! इस संसार का स्वरूप जानकर और सम्यक् व्रत आदि समस्त उपायों से मोह को त्यागकर अपने शुद्ध ज्ञानमय स्वरूप का ध्यान करो, इससे संसार परिभ्रमण का अभाव होता है।
४. एकत्वानुप्रेक्षा - संसार के भयंकर दुःखों को मैं अकेला ही
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