SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५३ वैराग्य जननी बारह भावनाओं पर सरल सुबोध शैली में हुए पूर्व प्रवचनों को सुनकर श्रोताओं में दिन-प्रतिदिन रुचि और उत्साह बढ़ रहा था। इसकारण श्रोता आज समय के पूर्व ही आ बैठे थे। उपाध्यायश्री पधारे, प्रवचन प्रारंभ करते हुए उन्होंने पूर्व में हुए बारह भावनाओं के विषय को ही आगे बढ़ाते हुए एक-एक भावना का विस्तार से समझाना प्रारंभ किया। १. अनित्यानुप्रेक्षा - का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा - इस भावना में साधक ऐसा विचार करता है कि - "एक आत्मा ही नित्य है, संयोग सब अनित्य हैं। शरीर और शरीर से संबंधित धन, स्त्री, पुत्र आदि सब अनित्य हैं। पानी के बुलबुले की भाँति क्षण भंगुर हैं।" ऐसी भावना के चिन्तन से धन-वैभव, पति-पत्नी, पुत्र-मित्र आदि अनुकूल संयोगों का वियोग होने पर दुःख नहीं होता। वे भोगों को जूठे भोजन के समान त्याग देते हैं तथा अविनाशी निज परमात्मा को भेद-अभेद रत्नत्रय की भावना द्वारा भाते हैं। इस प्रकार वे जैसी अविनश्वर आत्मा को भाते हैं; वैसी ही अक्षय, अनन्त सुखस्वभाववाली मुक्त आत्मा को वे प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार के चिन्तन का नाम अध्रुव भावना है।' २. अशरणानुप्रेक्षा - निश्चय से निज शुद्धात्मा की शरणरूपता तथा व्यवहार से पंच परमेष्ठी की शरणरूपता का और संयोगों की अशरणता का चिन्तन करना अशरणानुप्रेक्षा है। उदाहरणार्थ देखे निम्नांकित छन्द - “शुद्धातमअरु पञ्चगुरु, जग में सरनौ दोय । मोह उदय जिय के वृथा, आन कल्पना होय ।। निश्चय से शुद्धात्मा और व्यवहार से पंचपरमेष्ठी शरणभूत हैं । अज्ञानी बारह भावना विशेष विवेचन जीव मोहवश इनसे अन्य धन, स्त्री, पुत्र, परिवार और राज-पाट को शरण मानकर उनकी शरण खोजते हैं।"२ । संसार में अपनी आत्मा के सिवाय अपना और कोई रक्षा करनेवाला नहीं है। वह स्वयं ही कर्मों को खिपाकर जन्म, जरा, मरणादि के कष्टों से बच सकता है। आत्मा को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही परम शरण हैं । संसारमें भ्रमण करते हुए जीवों को दुःख से बचने के लिए इनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं हैं। निश्चयरत्नत्रय से परिणत शुद्धात्मद्रव्य और उसकी बहिरंग सहकारी कारणभूत पंचपरमेष्ठियों की आराधना - ये दोनों ही शरणभूत हैं; इनसे भिन्न देव, इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्रादि चेतन पदार्थ तथा मंत्र-तंत्र और औषध आदि अचेतन पदार्थ शरणभूत नहीं हैं। अनित्य व अशरण भावना में अन्तर बताते हुए कहा है कि अनित्य भावना में संयोगों और पर्यायों के अनित्य स्वभाव का चिन्तन होता है और अशरण भावना में उनके ही अशरण स्वभाव का चिन्तन होता है, जिसप्रकार अनित्यस्वभाव के कारण प्रत्येक वस्तु परिणमनशील है, नित्य परिणमन करती है; उसीप्रकार अशरण स्वभाव के कारण किसी वस्तु को अपने परिणमन के लिए पर की शरण में जाने की आवश्यकता नहीं है। पर की शरण की आवश्यकता परतंत्रता की सूचक है, जबकि प्रत्येक वस्तु पूर्णत: स्वतंत्र स्वयं अपने लिए ही शरणभूत है। ___ व्यवहार से अनित्य भावना का केन्द्रबिन्दु है - ‘मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार' और अशरण भावना का केन्द्रबिन्दु - ‘मर” न बचावे कोई' - यही इन दोनों का मूलभूत अन्तर है। जिसप्रकार क्षुधित और मांस के लोभी बलवान व्याघ्र के द्वारा दबोचे गये मृगशावक के लिए कोई भी शरण नहीं होता; उसीप्रकार जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधि आदि दु:खों के मध्य में परिभ्रमण करनेवाले जीव को कोई भी शरण नहीं है। यत्न से संचित किया हुआ धन भी भवान्तर में 77
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy