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चलते फिरते सिद्धों से गुरु उसके स्वरूप पर विचार किया जाये तो उसका चिन्तन भी निश्चितरूप से तत्त्वपरक ही है।
इस प्रकार आरम्भ की छह भावनाएँ वैराग्योत्पादक एवं अन्त की छह भावनाएँ तत्त्वपरक हैं; परन्तु इसे नियम के रूप में देखना ठीक न होगा; क्योंकि यह कथन मुख्यता और गौणता की अपेक्षा से ही है।
वैराग्योत्पादक चिन्तन से भावभूमि तरल हो जाने पर, उसमें बोया हुआ तत्त्वचिन्तन का बीज निरर्थक नहीं जाता; उगता है, बढ़ता है, फलता भी है और अन्त में पूर्णता को भी प्राप्त होता है । कठोर-शुष्क भूमि में बोया गया बीज नाश को ही प्राप्त होता है, अतः बीज बोने के पहले जमीन को जोतने एवं सींचने के श्रम को निरर्थक नहीं माना जा सकता। आरम्भ की छह भावनाएँ मुख्यरूप से भावभूमि को जोतने एवं वैराग्यरस से सींचने का ही काम करती हैं; जो कि आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बारह भावनाओं की यह चिन्तनप्रक्रिया अपने आप में अद्भुत है, आश्चर्यकारी है; क्योंकि इनमें संसार, शरीर और भोगों में लिप्त जगत को अनन्तसुखकारी मार्ग में प्रतिष्ठित करने का सम्यक् प्रयोग है, सफल प्रयोग है ।२५
स्वभाव की नित्यता के चिन्तनपूर्वक, पर्याय को गौण करके नित्य द्रव्यस्वभाव का अनुभव या स्वसंवेदन करना ही संवर के कारणरूप अनित्यानुप्रेक्षा है। नित्यता अथवा अनित्यता का चिन्तन तो विकल्पात्मक शुभभावरूप होने से पुण्यबन्ध का ही कारण है।
यद्यपि अनित्य आदि अनुप्रेक्षाओं का विकल्पात्मक चिन्तन शुभभावरूप होने से पुण्यबन्ध का कारण है तथापि तत्त्वार्थसूत्र में इन अनुप्रेक्षाओं का वर्णन जो संवर के कारणों में किया गया है, उसका कारण यह है कि - शुभभावरूप विकल्पात्मक चिन्तन होता है। उसी समय मुनिराज के तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्धपरिणति अथवा इस चिन्तन के अभावपूर्वक शुद्धोपयोग होता है, वस्तुतः वही वास्तविक अनुप्रेक्षा है और वह संवर का कारण है।
बारह भावना : सामान्य विवेचन
१५१ जिस प्रकार अभ्यन्तर वीतरागपरिणति को निश्चयमोक्षमार्ग एवं उस भूमिका में वर्तनेवाले शुभराग को व्यवहारमोक्षमार्ग कहा जाता है; उसी प्रकार अनुप्रेक्षा के सन्दर्भ में भी समझ लेना चाहिए। इस सन्दर्भ में मोक्षमार्गप्रकाशक में समागत निम्न कथन का सदैव स्मरण रखना चाहिए - "बहुत क्या, इतना समझ लेना कि निश्चयधर्म तो वीतरागभाव है, अन्य नाना विशेष बाह्यसाधन की अपेक्षा उपचार से किये हैं, उनको व्यवहारमात्र धर्मसंज्ञा जानना।२६"
शुद्धनिश्चयनय से आत्मा का स्वरूप सदैव इस तरह चिन्तवन करना चाहिए कि - "यह आत्मा देव, असुर, मनुष्य और राजा आदि के विकल्पों से रहित है अर्थात् शुद्धात्मा में देवादिक भेद नहीं हैं, ज्ञानस्वरूप मात्र है और सदा स्थिर रहनेवाला है।२७ अभी समय हो गया है। अगले प्रवचन में इन्हें ही विस्तार से कहेंगे।
ॐ नमः। आज के प्रवचन ने श्रोताओं को झकझोर दिया था, उनके हृदयों को हिला दिया था। बारह भावनाओं के स्वरूप और चिन्तन प्रक्रिया को श्रोताओं ने इस दृष्टिकोण से पहली बार ही सुना था। अभी तक बारह भावनायें रोते-रोते उदास मन से ही पढ़ी-सुनी जाती थीं। 'इक चिन्तन समसुख जायें' यह भी पढ़ते तो थे, पर वह समसुख' क्या है? इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया।
सभी श्रोता अगले प्रवचन की उत्सुकता मन में संजोये अपने-अपने घर को प्रस्थान कर गये? १. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचि, ७. आस्रव ८. संवर, ९. निर्जरा, १० लोक, ११. बोधिदुर्लभ, १२. धर्म । १३. कवि श्री भागचन्द १४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-१/७१, १५. सर्वार्थसिद्धि, ९/७,
१६. धवला ९/४,१,५५/२६३/९ १७. मोक्षमार्गप्रकाशक,२२९
१८. ज्ञानार्णव भावना अधिकार १९२ १९. बारस अणुवेक्खा , गाथा ८९, ९० २०. भगवती आराधना, १८७४ २१. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा-१
२२. बारह भावना : एक अनुशीलन, १५ २३. सर्वार्थसिद्धि, ९/७/८०३ २४. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २२९ २५. बारह भावना : एक अनुशीलन, ६-७ २६. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-२३३ २७. बारस अणुवेक्खा, गाथा-७
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