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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
शुद्धनिश्चय से तो जीव के संवर ही नहीं है; क्योंकि शुद्धात्मा तो पर और पर्याय से एक अभेद ही है; इसलिए संवर के विकल्प से रहित आत्मा का निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए ।
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यह साक्षात् संवर वास्तव में शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि से होता है और वह शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि भेदविज्ञान से ही होती है। इसलिए वह भेदविज्ञान अत्यन्त भाने योग्य है। जयचन्दजी छाबड़ा ने कहा है - निज स्वरूप में लीनता, निश्चय संवर जानि । समिति गुप्ति संजम धरम, करें पाप की हानि ।। पण्डित दौलतरामजी कहते हैं -
जिन पुण्य पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना । नित ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ।। युगलजी ने कहा है -
शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्तल । शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से जागे अन्तर्बल || व्यवहारनयपरक संवरानुप्रेक्षा में मन, वचन, काय की शुभ प्रवृत्तियों से अशुभोपयोग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यानरूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है तथा शुद्धोपयोग से जीव के धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं, इसलिए संवर का कारण ध्यान है - ऐसा निरंतर विचारते रहना संवर अनुप्रेक्षा है।
संवरानुप्रेक्षा का मूल प्रयोजन यह है कि इसका चिन्तवन करनेवाले जीव के संवर में निरन्तर उद्यमशीलता बनी रहती है और इससे मोक्षपद की प्राप्ति होती है।
९. निर्जरानुप्रेक्षा - निर्जरानुप्रेक्षा का स्वरूप बताते हुए आचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि निर्जरा के गुण-दोषों का चिन्तन करना, निर्जरानुप्रेक्षा है।
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बारह भावना विशेष विवेचन
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निश्चयनयपरक निर्जरानुप्रेक्षा में कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि शुभाशुभभाव के निरोधरूप संवर और शुद्धोपयोगरूप योग से युक्त जो जीव अनेक प्रकार के तप करता है; वह नियम से अनेक प्रकार के कर्मों की निर्जरा करता है।
जो साम्यभाव सुख में लीन होकर बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, ध्यान करता है तथा इन्द्रियों और कषायों को जीतता है; उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है।
निज परमात्मानुभूति के बल से निर्जरा करने के लिए दृष्ट, श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षादिरूप विभावपरिणाम के त्यागरूप संवेग तथा वैराग्य परिणामों के साथ रहना निर्जरानुप्रेक्षा है।
व्यवहारनयपरक निर्जरानुप्रेक्षा में कहा है कि निर्जरा दो प्रकार की है। एक स्वकालपक्क और दूसरी तप द्वारा होनेवाली। इनमें से पहली तो चारों गतिवाले जीवों के होती है और दूसरी केवल व्रतधारी श्रावक और मुनियों के होती है।
अहंकार और निदान रहित ज्ञानी के बारह प्रकार के तप से तथा वैराग्य भावना से निर्जरा होती है।
वेदनाविपाक का नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की होती है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला । नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से उत्पन्न हुई जो अबुद्धिपूर्वा (सविपाक) निर्जरा होती है, तथा परीषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला (अविपाक) निर्जरा है, वह शुभानुबन्धा और निरानुबन्धा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुण दोषों का चिन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है।
पण्डित दौलतरामजी कहते हैं -
निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना । तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावे ।।