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चलते फिरते सिद्धों से गुरु खेंच तानकर नहीं करें, नहिं लागें अतिचार। उत्तर गुण मुनि पालते,
शक्ति के अनुसार ।। इह विध बाह्याचार सह, चिंतत आतम धर्म । क्षण-क्षण अन्तर्लीन हों, पा लेते निज मर्म ।।
गुरुवर ! चिर जयन्त हों, दर्शाये शिव पन्थ। चाहत मेरी है यही,
कब छोडूं जग पन्थ ।। निर्ग्रन्थ बिना मिलता नहीं, शिवपुर का शिव पन्थ । मेरी हार्दिक भावना, बन जाऊँ निर्ग्रन्थ ।।
समर्पण प्रस्तुत कृति समर्पित है उन्हें, जिन्होंने किशोर वय में एक स्वप्न देखा था, एक कल्पना की थी कि - "यदि मेरी शादी हुई और पुत्र हुए तो मैं उन्हें जैनदर्शन का उच्च कोटि का ऐसा उद्भट विद्वान बनाऊँगा जिससे वे स्व-पर हित कर सकें, भले उसके लिए मुझे कुछ भी क्यों न करना पड़े।
अपने उस दृढ संकल्प और सम्पूर्ण समर्पण से उन्होंने अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों के रहते हुए भी मुझे और मेरे अनुज हुकमचन्द को जैनदर्शन का विद्वान बनाकर अपना स्वप्न साकार कर लिया। उन्होंने अपने घर की बगिया में न केवल खिलते हुए फूलों के रूप में हमें देखा; बल्कि स्वयं ने भी ढलती हुई उम्र में उग्र पुरुषार्थपूर्वक नियमित स्वाध्याय से जिनवाणी के रहस्य को जानकर अपने जीवन को भी सफल कर लिया; इसीकारण वे अपने हमउम्र के साधर्मियों के लिए भी प्रेरणास्रोत बने रहे।
यद्यपि मैं उनकी भावनाओं को पूर्ण करने के लिए जीवन के अन्तिम क्षण तक जिनवाणी की सेवा में सक्रिय रहने के लिए कृत संकल्पित हूँ; तथापि पता नहीं, क्षणभंगुर जीवन की आयु कब पूर्ण हो जाये, इसलिए मैं अब तक लिखी कृतियों में अपनी यह संभवतः अन्तिम कृति 'चलते फिरते सिद्धों से गुरु' स्व. पूज्य पिताश्री हरदासजी एवं स्व. पूज्य माता श्री पार्वतीबाई को समर्पित करते हुए उनके चरणों में शत्-शत् नमन करता हूँ।
श्रद्धावनत् २३ अगस्त, २००७ - (पण्डित) रतनचन्द भारिल्ल एवं परिवार,
मुनिवर मेरे मन वसें, चलते-फिरते सिद्ध । दर्शन-वंदन-नमन से, परिणति होय विशुद्ध ।।
- रतनचन्द भारिल्ल