________________
१३७
१३६
चलते फिरते सिद्धों से गुरु ह्रास होगा। लोक व्यवस्था ही बिगड़ जायेगी।
२. अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय - इस नय से संश्लेष सम्बन्ध सहित देह को ही जीव कहा जाता है, जिसे न मानने से द्रव्यहिंसा से बचाव नहीं हो सकेगा अर्थात् राख (भस्म) मसलना और पंचेन्द्रिय जीव का गला दबाना एक समान हो जायेगा।
३. उपचरित सद्भूत व्यवहारनय - यह नय विकार एवं गुण-गुणी में भेद करके उन्हें जीव कहता है। जैसे - राग का कर्ता जीव, क्रोध का कर्ता जीव । इसे न मानें तो संसारी व सिद्ध में भेद नहीं रहने से चरणानुयोग व करणानुयोग के विषय का क्या होगा?
४. अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय - पर्याय-पर्यायवान गुणगुणी में भेद करना । जैसे - आत्मा में केवलज्ञान आदि अनन्त गुण एवं शक्तियाँ हैं। इसे न मानने से स्वभाव की सामर्थ्य का ज्ञान नहीं होगा।
अब इस विषय को यहीं विराम देकर - धर्म के विविध स्वरूप एवं भेद-प्रभेद की चर्चा करते हैं।
जिनागम में निश्चयधर्म-व्यवहारधर्म, श्रावकधर्म-मुनिधर्म, रत्नत्रयधर्म, दयाधर्म, अहिंसाधर्म, उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्म इत्यादि अनेक प्रकार से धर्म के स्वरूप को समझाया गया है। इन सब विविध रूपों का मूलभाव एक वीतरागता ही है। कहा भी है -
धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ।।
"वस्तु का स्वभाव धर्म है; दश प्रकार के क्षमादिभाव भी धर्म हैं। रत्नत्रय धर्म है और जीवों की रक्षा करना भी धर्म है।"२
आचार्य पूज्यपाद कहते हैं - "जो इष्ट स्थान (मोक्ष) में पहुँचाता है, उसे धर्म कहते हैं।"
___ “निज शुद्धभाव का नाम ही धर्म है। यह धर्म संसार में पड़े हुए जीवों की चतुर्गति के दुःखों से रक्षा करता है।"
निश्चय से संसार में गिरते हुए आत्मा की जो रक्षा करे वह विशुद्ध
निश्चय एवं व्यवहारनय एवं धर्म के विविध रूप ज्ञान-दर्शनलक्षणवाला निजशुद्धात्मा की भावनारूप धर्म है। ___ जहाँ एक ओर आ. कुन्दकुन्द ने अष्टपाहुड़ में “धम्मो दयाविसुद्धो। धर्म दया करके विशुद्ध होता है ऐसा कहा है, वहीं प्रवचनसार में "चारित्तं खलु धम्मो अर्थात् चारित्र ही निश्चय से धर्म है" - ऐसा कहा है।'
निश्चयनय से वत्थु सहावो धम्मो अर्थात् वस्तु का स्वभाव धर्म है यह कहा है। शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना इसका अर्थ है; इसलिए धर्म से परिणत आत्मा धर्म ही है। मूलगाथा का भावार्थ इसप्रकार है -
"चारित्र ही धर्म है। वह धर्म साम्यभावरूप है और मोह एवं रागद्वेष रहित आत्मा का परिणाम साम्यभाव है।" __ "रागादि दोषों से रहित एवं शुद्धात्मा की अनुभूति सहित निश्चयधर्म होता है।" ___"रागादि समस्त दोषों से रहित होकर आत्मा का आत्मा में लीन होना धर्म है।" ___ भावपाहुड़ गाथा ८३ में भी कहा है कि - "मोह व क्षोभरहित अर्थात् राग-द्वेष व योगों रहित आत्मा का परिणाम धर्म है।"
ऐसे निश्चय धर्म को प्राप्त करने के लिए जिस श्रावक-मुनि के आचरण को जीवन में अपनाया जाता है, वह निश्चय का साधन व्यवहार धर्म है।
इसप्रकार निश्चय-व्यवहार धर्म की संक्षिप्त चर्चा के बाद इन्हीं के बारे में विशेष समझाते हैं।
सम्यक्त्वपूर्वक किये गये व्यवहारधर्म से परम्परा मोक्ष प्राप्त होता है।'
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि विविध विवक्षाओं से प्रतिपादित धर्म अनेक नहीं हैं, बल्कि धर्म तो एक वीतरागभावरूप ही है। धर्म के प्रतिपादन की विवक्षाएँ अनेक हैं। ___ इसप्रकार जिनागम में धर्म की प्ररूपणा मुख्यतः चार प्रकार से है - (१) वस्तुस्वभावरूप धर्म (२) उत्तमक्षमादिक दशलक्षण धर्म, (३) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म और (४) जीवरक्षारूप दया धर्म ।
69