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चलते फिरते सिद्धों से गुरु कोई व्यवहारनय निश्चय के मारग को,
भिन्न-भिन्न जानकर करै निज उद्धृता। जानें जब निश्चय के भेद व्यवहार सब,
कारण को उपचार मानें तब बुद्धता ।। अर्थात् कोई-कोई तो निश्चयनय से आत्मा के शुद्ध स्वरूप को सुनकर अभी अशुद्धावस्था में ही आत्मा को परमात्मा जैसा शुद्ध मानकर स्वछन्द हो जाते हैं। दूसरे, कुछ लोग व्यवहारनय से धर्म संज्ञा को प्राप्त पूजा-पाठ, दान-पुण्य तथा शील, तप के शुभ भावों में ही धर्मबुद्धि से आत्मा का हित मानकर अपनी मूर्खता-अज्ञानता नहीं छोड़ते. आत्मा के वीतराग स्वभावरूप धर्म को जानने का प्रयत्न नहीं करते। तीसरे, कुछ लोग ऐसे हैं जो मानते तो दोनों नयों को हैं, परन्तु दोनों के विषयों को भिन्न-भिन्न जानकर और स्वयं को नयों का ज्ञाता मानकर अपनी मान कषायवश उदण्ड प्रवृत्ति नहीं छोड़ते।
जब लोग यह मानें/समझें कि निश्चय और व्यवहार दोनों ही नय जिनवाणी माँ के दो नेत्र हैं। जब हमें शुद्धात्मा को जानना हो, उस समय व्यवहारनय के नेत्र को बंद करके और निश्चय के नेत्र को खोल करके देखना होगा तथा जब आत्मा के भेद-प्रभेदों को जानना होगा तथा पापादि से बचना होगा तो व्यवहारनय से कारण के रूप में कहे गये व्यवहार धर्म को, पूजा-पाठ आदि को अपनाना होगा।"
तात्पर्य यह है कि आत्मा से परमात्मा बनने के लिये निश्चयनय के विषयभूत शुद्धात्मा का आश्रय उपादेय है और उस शुद्धात्मा तक पहुँचने के लिए और पापों से बचने के लिए व्यवहारनय का विषय सच्चे देवगुरु-शास्त्र की पूजा, भक्ति एवं स्वाध्याय अनुकरणीय है। ऐसा दोनों नयों का सुन्दर सुमेल है। द्रव्यदृष्टि में प्रयोजनभूत निश्चय-व्यवहारनय __वस्तुतः तो निश्चयनय एक ही है; परन्तु प्रयोजनवश इसके दो भेद ही किये हैं। एक - शुद्धनिश्चयनय, दूसरा - अशुद्धनिश्चयनय । पुनः शुद्ध
निश्चय एवं व्यवहारनय एवं धर्म के विविध रूप
___ १३५ निश्चयनय के तीन भेद हैं।
१. परमशुद्धनिश्चयनय, २. साक्षातशुद्धनिश्चयनय, ३. एकदेशशुद्ध निश्चयनय । इसप्रकार निश्चयनय के निम्नांकित चार भेद हो गये।
(क) परमशुद्धनिश्चयनय - इसका विषय पर व पर्याय से रहित अभेद अखण्ड नित्य वस्तु है। अतः इसका कोई भेद नहीं होता। इस नय की विषय वस्तु ही दृष्टि का विषय है, श्रद्धा का श्रद्धेय है।
(ख) साक्षातशुद्धनिश्चयनय - यह नय आत्मा को क्षायिक भावों से, (केवलज्ञानादि से) सहित बताता है। ध्यान रहे, इस दूसरे भेद का एक नाम शुद्धनिश्चयनय भी है, जो मूलनय के नाम से मिलता-जुलता है, अतः अर्थ समझने में सावधानी रखें।
(ग) एकदेशशुद्धनिश्चयनय - इस नय से मतिश्रुतज्ञानादिपर्यायों को जीव का कहा है। जैसे - मतिज्ञानी जीव, श्रुतज्ञानी जीव।
(घ) अशुद्धनिश्चयनय - यह नय आत्मा को रागादि विकारीभावों से सहित होने से रागी-द्वेषी-क्रोधी आदि कहता है।
यहाँ ज्ञातव्य है कि कहीं-कहीं शुद्धनिश्चयनय के तीनों भेदों का प्रयोग समुदायरूप में भी हुआ है। परमशुद्धनिश्चय के अलावा तीनों का व्यवहारनय के रूप में भी प्रयोग किया है। अतः अर्थ समझने में सावधानी की जरूरत है। ___ व्यवहारनय का कार्य एक अखण्ड वस्तु में, गुण-गुणी में, पर्यायपर्यायवान में भेद करके तथा देह व जीव आदि दो भिन्न द्रव्यों में अभेद करके वस्तुस्थिति को स्पष्ट करना है। व्यवहारनय के भी मूलतः चार भेद हैं :
१. उपचरित असद्भूत व्यवहारनय - इस नय से संष्लेश सम्बन्धरहित परद्रव्य स्त्री-पुत्र, परिवार एवं धनादि को अपना कहा जाता है। इसे न मानने से स्वस्त्री-परस्त्री का विवेक नहीं रहेगा, निजघर-परघर, निजधन-परायाधन आदि का व्यवहार संभव न होने से नैतिकता का
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