________________
१३२
चलते फिरते सिद्धों से गुरु जहाँ इतना बड़ा समाज हो, वहाँ मतभेद तो स्वाभाविक ही है। एक ही घर में पिता-पुत्रों में, भाई-भाई में, पति-पत्नी में मतभेद देखे जाते हैं, फिर इतने बड़े समाज की विचारधारा एक कैसे हो सकती है? अच्छी बात यह है कि मतभेद के बावजूद भी परस्पर में मनभेद नहीं है। ___व्यापार में सब साथ-साथ रहते हैं। कभी भी परस्पर में वैर-विरोध नहीं रखते। मतभेद के बावजूद भी सामूहिक धार्मिक कार्यक्रमों में एक दूसरे का सहयोग भी करते हैं, परन्तु सामाजिक चुनावी वातावरण ही ऐसा होता है कि इसमें कोई कितना भी सावधान रहे, सजग रहे; फिर समाजिक एकता प्रभावित हुए बिना नहीं रहती; क्योंकि चुनावी भूत ही ऐसा होता है, जो सर पर चढ़कर बोलता है। इसकारण कभी-कभी हल्के हथकण्डे अपनाना भी अस्वाभाविक नहीं है। परिणामस्वरूप वातावरण में क्षणिक/ किंचित् कड़वाहट हो जाती है।
निश्चय एवं व्यवहारनय एवं धर्म के विविध रूप
१३३ जिनवाणी के रहस्य को जानो, क्योंकि जिनवाणी की प्ररूपणा दोनों नयों से हुई है। इस कारण दोनों नयों का जिनवाणी में अपना-अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। अतः हम नयों की पार्टियाँ बना कर इन्हें राग-द्वेष का कारण न बनायें।
यह सुनकर श्रोताओं को मार्गदर्शन भी मिला और नयों को समझने की जिज्ञासा भी जगी। __ आचार्य श्री ने आगे कहा - “निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों जिनवाणी माता के दो नेत्र हैं। ऐसे कौन मातृ भक्त पुत्र होंगे जो परस्पर की लड़ाई में अपनी माता को कांणा करना चाहेंगे।"
श्रोताओं की ओर से आवाज आई - "इस समाज में तो जिनवाणी माता का ऐसा कोई कपूत नहीं है जो जिनवाणी माँ को कांणा करना चाहेगा? हाँ, जब बात सामने आ ही गई तो हे स्वामी! आप आज इसी विषय का स्पष्टीकरण करने की अनुकम्पा करें, ताकि हम सब समाज का भ्रम भंग हो जाय और हम सब एकता के सूत्र में ऐसे बँध जायें जो कभी टूटने का नाम भी न ले। ___ आचार्यश्री समाज की नियमित स्वाध्याय न करने की वृत्ति से सुपरिचित थे। अतः नयों जैसे कठिन विषय को सरलता से समझाते हुए उन्होंने कहा - "देखो, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय की टीका के मंगलाचरण में आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने एक छन्द में ही निश्चय व व्यवहार के यथार्थ स्वरूप को न जानने वालों की तीन तरह की भूलों का उल्लेख करते हुए दोनों नयों का जो समन्वय किया है, वह सबके समझने लायक तो है ही, अपनी भूल को सुधारने के लिए भी पर्याप्त है। वे कहते हैं - कोई नर निश्चय से आत्मा को शुद्ध मान,
भयो है स्वच्छन्द न पिछाने निज शुद्धता । कोई व्यवहार दान तप शीलभाव को ही,
आत्मा का हित मान छोड़ें नहीं मूढ़ता।
उस नगर का जैन समाज भी आचार्यश्री के प्रवचन सुनने प्रतिदिन देवगढ़ तो पहुँचता ही था। एक मध्यस्थ श्रोता से जब आचार्यश्री को उस नगर की यह परिस्थिति ज्ञात हुई तो आचार्यश्री ने अधिक कुछ न कहकर दोनों पक्षों को लक्ष में रखकर यह सलाह दी कि “जिनमंदिरों के मुखिया अपने-अपने जिनमन्दिरों के मुख्य द्वार पर यह श्लोक अवश्य लिखाओ -
"जइ जिणमयंपवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुणह।
एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण पुण तच्च ।।' अर्थात् यदि जिनमत में प्रवर्तन करना चाहते हो तो दोनों नयों में से किसी को भी मत छोड़ो। यदि निश्चयनय का पक्षपाती होकर व्यवहारनय की उपेक्षा करोगे तो धर्मतीर्थ प्रवर्तन का नाश हो जायेगा और यदि व्यवहार का पक्षपाती होकर निश्चयनय की उपेक्षा करोगे, छोड़ दोगे तो तत्वों का लोप हो जायेगा । अतः दोनों नयों के स्वरूप को यथार्थ समझकर
67