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चलते फिरते सिद्धों से गुरु कर्णेन्द्रिय - इन चार इन्द्रियों तथा इनके विषयों के प्रति अनासक्त बनाने में सहयोग करते हैं।"
इस प्रकार १२ तपों की चर्चा हुई। शेष फिर । ॐ नमः।
१-२. मूलाचार, गाथा ३४६ एवं तत्त्वार्थसूत्र, ९/१९ ३. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-२३१
४. सर्वार्थसिद्धि ९/१९ ५. अनगार धर्मामृत ७/८
६. भ. आ., गाथा-१३४८/१३०६ ७. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृ. २३०
८. मूलाधार ५/१६१ ९. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-२३२
१०. राजवार्तिक ९/२० ११. सर्वाथसिद्धि ९/२०
१२. सर्वार्थसिद्धि ९/२० टीका १३. अनगार धर्मामृत, ७/३७
१४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४५५ १५-१६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग-३, पृष्ठ-१५७ १७. धवला १३/५, ४, २६/६३ १८. चारित्रसार, पृष्ठ १४७ १९. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-३, पृष्ठ ५४७ २०. राजवार्तिक, ६/२४ २१. सागर धर्मामृत, ७/३५
२२. भगवती आ., गा १२९-१३१ २३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ४५७
२४. प्रवचनसार गाथा २४७ २५. मूलाचार गाथा ३९० व १०४
२६. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, श्लोक ४६० २७ अर्थप्रकाशिका, पृष्ठ ४३०-४३१
२८. सर्वार्थसिद्धि, ९/२० २९. मूलाचार, गाथा ५११
३०. भगवती आरा., गा १०७-१०९ ३१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-३, पृष्ठ ५२२ ३२. तत्वार्थसूत्र ९/२६ ३३. अमितगतिकृत योगसार.५/५२
३४. नियमसार, गाथा १२१ ३५. भगवती आराधना टीका, गाथा ११६ ३६. स. सि. ९/३६ रा.वा. ९/३२ ३७. रयणसार मूल, गाथा ८७
३८. भ. आ. मू. १७०९ ३९. ज्ञानसार-१०
४०. ज्ञानार्णव २५/८ ४१. पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति १५०/२१७/१६ ४२. धवला पु.३/५/४/२७/५४/५५ ४३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४४०
४४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४३० ४५. भगवती आराधना टीका, गाथा-६ ४६. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २३१ ४७. राजवार्तिक व सर्वार्थसिद्धि
४८. मूलाचार, गाथा ३५० टीका ४९. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४४१
५०. सर्वार्थसिद्धि वचनिका, पृष्ठ ३६३ ५१. धवला १३/५,४, २६/५६
५२. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४४२ ५३. धवला १३/५,४,२६/५७
५४. तत्त्वार्थवार्तिक, सूत्र ९/१९ ५५. भगवती आराधना टीका ६/३२
५६. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४४६ ५७. राजवार्तिक, धवला इत्यादि के आधार पर ५८. मूलाचार, गाथा ३५७ ५९. मूलाचार वृत्ति, गाथा ३५६
६०.सर्वार्थ. एवं तत्त्वार्थवार्तिक ९/१९ ६१. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४४८
६२. मूलाधार समीक्षा, पृष्ठ १८३ । ६३. तत्त्वार्थवार्तिक, पृष्ठ ६२६
६४. मूलाचार समीक्षा पृष्ठ १८५-१८६
देवगढ़ क्षेत्र के निकट एक ऐसी नगरी है। जहाँ धार्मिक वातावरण हमेशा अपनी चरम सीमा पर रहा है। वह जैन समाज का ऐसा केन्द्र रहा, जहाँ विभिन्न विचारधारा वाले साधु-संतों का आवागमन बना ही रहता है। इस कारण वहाँ की बहुसंख्य जैन समाज में साधु-संतों की भक्ति कुछ अधिक ही है। वहाँ समाज का सोच है कि - "गृहस्थों को मुनियों की आलोचना का अधिकार नहीं है, पुराणों में भी ऐसा लिखा मिल जाता है कि चार रोटियाँ देने के लिए साधु की क्या परीक्षा करना?"
यह सच है कि चार रोटियों के लिए परीक्षा नहीं करना चाहिए; परन्तु व्यवहार सम्यग्दर्शन के निमित्त सच्चे-देव-गुरु का यथार्थ स्वरूप तो जानना ही होता है। अन्यथा मोक्षमार्ग की शुरुआत कैसे होगी? क्योंकि व्यवहार सम्यग्दर्शन में सच्चे-देव-गुरु की यथार्थ श्रद्धा अनिवार्य है। अब तक इस बात की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया। अस्तुः
वहाँ के अनेक विशालकाय जिनमन्दिर इस बात के प्रतीक हैं कि वह नगरी प्राचीन काल से ही धन और धर्म से समृद्ध जैननगरी रही है। इतना ही नहीं वहाँ जैन समाज को अभी भी धर्म से इतना लगाव है कि शैक्षणिक समितियों एवं सामाजिक संगठनों की पार्टियाँ भी निश्चय और व्यवहारनय के नाम से प्रचलित हैं।
भले ही बहुसंख्य समाज को नयज्ञान का सूक्ष्म अध्ययन नहीं रहा हो, परन्तु इतना तो सभी जानते ही हैं कि स्याद्वाद शैली में नयों के कथन से ही वस्तु का स्वरूप समझाया जाता है, फिर भी समझ की कमी के कारण श्रोताओं में किन्हीं को निश्चयनय का पक्ष हो जाता है तो किसी को व्यवहार का; जबकि जिनवाणी में मुख्य-गौण रूप से दोनों नयों की चर्चा की गई है। अस्तु :
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