________________
१२४
चलते फिरते सिद्धों से गुरु
बारह तप
है। सत्शास्त्र का वाँचना, मनन करना, उपदेश देना आदि स्वाध्याय सर्वोत्तम तप माना गया है। मोक्षमार्ग में इसका बहुत ऊँचा स्थान है।"
५. व्युत्सर्गतपः - "बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह का नियत काल के लिए सर्वत्याग करना व्युत्सर्गतप कहलाता है।३२"
“देह को अचेतन, नश्वर और कर्म-निर्मित समझकर जो उसके पोषण आदि के अर्थ कोई कार्य नहीं करता; वह कायोत्सर्ग तप धारक है।"
"काय आदि परद्रव्यों में स्थिरभाव अर्थात् लीनता को छोड़कर, जो आत्मा को निर्विकल्परूप से ध्याता है; उसे कायोत्सर्ग कहते हैं।"
कायोत्सर्ग में शरीर का त्याग होता है। जैसे पवनञ्जय और अंजना की भाँति प्रियतमा पत्नी से कुछ अपराध हो जाने पर पति के साथ एक ही घर में रहते हुए भी पति का प्रेम हट जाने के कारण वह त्यागी हुई कही जाती है। इसीप्रकार काय को त्यागना तो अपघात है, काय को छोड़ा नहीं जा सकता, पर उसके प्रति ममत्व का त्याग किया जा सकता है। अत:काय के प्रति ममत्व का त्याग ही कायोत्सर्ग है।३५
६. ध्यान तप :- ध्यान का स्वरूप एक ज्ञेय में ज्ञान का एकाग्र होना है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा भी है - 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानं' जो पुरुष धर्म में एकाग्रचित्त करता है, उस काल में इन्द्रिय-विषयों का वेदन नहीं करता, उसे ही धर्मध्यान होता है। उसका मूल कारण संसार, देह, भोग से वैराग्य है। कारण कि वैराग्य के बिना धर्म में चित्त स्थिर नहीं होता।
आत्मा को 'स्व' के प्रति अपेक्षा होने पर, 'पर' की उपेक्षा हुए बिना नहीं रहती - ऐसे 'पर' की उपेक्षा करनेवाले को ही अन्तरंग में स्थिरता होती है। धर्मध्यानवाला विकार में एकाग्र नहीं होता, अपितु अन्दर में जो स्वयं एक ज्ञानमात्र स्वभाव है, उसे लक्ष्य में लेता है।
धर्मध्यान के सम्बन्ध में विविध परिभाषायें जिनमें कुछ इसप्रकार हैं -
ફરક धर्म से युक्त प्रवृत्ति धर्म ध्यान है।३६ सम्यग्ज्ञान ही धर्मध्यान है।
जिससे धर्म का परिज्ञान होता है, वह धर्मध्यान का लक्षण समझना चाहिए।३८
राग-द्वेष त्याग कर साम्यभाव से यथास्थित जीवादि पदार्थों का चिन्तवन करना धर्मध्यान है।३९ __पुण्य रूप आशय के वश से तथा शुद्ध लेश्या के अवलम्बन से और वस्तु के यथार्थ स्वरूप के चिन्तवन से उत्पन्न हुआ ध्यान प्रशस्त ध्यान है।
पंचपरमेष्ठी की भक्ति से तदनकल शुभ अनुष्ठान व पूजा-दान आदि में बहिरंग धर्मध्यान होता है।४९
धर्मध्यान के चिन्ह :- आगम उपदेश व जिज्ञासा के अनुसार कहे गये पदार्थों का श्रद्धान होता है, वह धर्मध्यान का लिंग (पहचान) है। जिनश्रुत का गुणगान कीर्तन, प्रशंसा, विनय, श्रुतशील व संयमरत रहना ये सब बातें धर्मध्यान में होती हैं।४२ बाह्यतप
१. अनशनतप :- इन्द्रियों के अपने-अपने विषयों से हटकर, राग-द्वेष रहित आत्मस्वरूप में बसने या लीन होने से खाद्य, स्वाद्य, लेह
और पेय - इन चार प्रकार के आहार का विधिपूर्वक त्याग करना उपवास या अनशन कहलाता है। ____ “मन और इन्द्रियों को जीतकर इहभव तथा परभव के विषय-सुखों
की अपेक्षा रहित होना, साथ ही आत्मध्यान और स्वाध्याय में लीन रहकर कर्मक्षय के लिए एक दिन, दो दिन इत्यादिरूप काल-परिमाण सहित सहजभाव से किया गया आहार-त्याग अनशनतप है।” ____ मुनीन्द्रों ने संक्षेप में इन्द्रियों को विषयों में न जाने देने को, मन को अपने आत्मस्वरूप में लगाने को उपवास कहा है; इसलिए जितेन्द्रिय आहार करते हुए भी उपवास सहित ही होते हैं।
63