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________________ बारह तप १२६ चलते फिरते सिद्धों से गुरु चार प्रकार के आहारों का त्याग करना अनशन है। यह अनशन तीन प्रकार का है - मैं भोजन करूँ, भोजन कराऊँ, भोजन करनेवाले को अनुमति दूँ; इसतरह मन में संकल्प करना । मैं आहार लेता हूँ, तुम भोजन करो, तुम भोजन पकाओ; ऐसा वचन से कहना । चार प्रकार के आहार को संकल्पपूर्वक शरीर से ग्रहण करना, हाथ से इशारा करके दूसरे को ग्रहण करने में प्रवृत्त करना, आहार ग्रहण करने के कार्य में शरीर से सम्मति देना - ऐसी जो मन, वचन, काय की क्रियाएँ, उन सबका त्याग करना अनशन है।"४५ कषायविषयाहारो, त्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः, शेषं लंघनकं विदुः ।। जहाँ कषाय, विषय और आहार का त्याग किया जाता है, उसे उपवास जानना; शेष को श्रीगुरु लङ्घन कहते हैं। २. अवमौदर्य तप :- "तृप्ति के लिए पर्याप्त भोजन में से चतुर्थांश या दो-चार ग्रास कम खाना अवमौदर्य या ऊनोदर है।''४७ पुरुष का प्राकृतिक आहार बत्तीस और स्त्रियों का अट्ठाईस ग्रास (कवल) प्रमाण होता है। उनमें से एक-एक ग्रास कम करते हुए, जब तक एक ग्रास या कण मात्र रह जाय, तब तक अल्प आहार ग्रहण करना अवमौदर्य तप है।४८ “आहार की अतिचाह से रहित होकर, शास्त्रोक्त चर्या की विधि से योग्य, प्रासुक, अल्प आहार लेना अवमौदर्य तप है।''४९ “संयम की वृद्धि, निद्रा-आलस्य का नाश, वात-पित्त-कफ आदि दोष का प्रशमन, सन्तोष, स्वाध्याय आदि सुखपूर्वक होवें, इसके लिए थोड़ा आहार लेना अवमौदर्य है।"५० __जो पित्त के प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ हैं, उन्हें आधे आहार की अपेक्षा उपवास करने में अधिक थकान आती है, जो अपने तप के माहात्म्य से भव्य जीवों को उपशान्त करने में लगे हैं, जो अपने ર૭ उदर में कृमि की उत्पत्ति का निरोध करना चाहते हैं और जो व्याधिजन्य वेदना के निमित्तभूत अतिमात्रा में भोजन कर लेने से स्वाध्याय के भंग होने का भय करते हैं, उन्हें यह अवमौदर्य तप करना चाहिए।"५१ "जो मुनि कीर्ति के निमित्त, मायाचारी से अल्प भोजन करता है, उसके अवमौदर्य तप निष्फल है।''५२ "३. वृत्तिपरिसंख्या तप :- भोजन, पात्र, घर, मुहल्ला आदि को वृत्ति कहते हैं। इस वृत्ति का परिमाण या नियंत्रण ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है।"५३ “आशा-तृष्णा का दमन करने के लिए एक घर, सात घर, एक-दो गली, अर्द्धग्राम, दाता आदि प्रवृत्ति का विधान या भोजन के विषय में होनेवाले संकल्प-विकल्प और चिन्ताओं का नियंत्रण करना वृत्ति है, उसमें परिसंख्यान अर्थात् मर्यादा करना, गणना करना वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप कहा जाता है।"५४ वृत्तिपरिसंख्यान तप के उद्देश्य इस प्रकार हैं - (१) "इन्द्रिय और मन का निग्रह (२) भोजनादि के प्रति रागवृत्ति को दूर करना (३) आशा-तृष्णा की निवृत्ति, (४) धैर्य गुण की वृद्धि, (५) भूख-प्यास सहन करने का अभ्यास और (६) अपनी वृत्तियों पर कठोर संयम।"५५ ४. रसपरित्याग तप :- “दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और लवण - इन सब रसों का त्याग करना अथवा एक-एक रस का त्याग करना अथवा तीखा, कड़वा, कषायला, खट्टा और मीठा - इन पाँच प्रकार के रसों का एकदेश या सर्वदेश त्याग करना । रस सम्बन्धी लम्पटता को मन, वचन और शरीर के संकल्प से त्यागना रसपरित्याग तप है।"५६ जो मुनि संसार के दुःख से तप्तायमान होकर ऐसे विचार करता है कि इन्द्रियों के विषय विषसमान हैं; विष खाने पर तो एक ही बार मरता है, परन्तु विषयसेवन करने पर बहुत जन्म-मरण होते हैं - ऐसा विचार कर 64
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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