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________________ बारह तप १२२ चलते फिरते सिद्धों से गुरु 'इच्छानिरोधस्तपः' सूत्र के अनुसार इच्छाओं का निरोध ही तो तप है। ___मुनि के अयोग्य कार्य निषिद्ध व्यवहार कहलाते हैं। ऐसे निषिद्ध कार्य मुनिराज को अनुमोदना योग्य नहीं हैं। यदि मुनिराज ऐसे किसी कार्य में संलग्न होते हैं तो निश्चित ही उनका अध:पतन होता है। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार गाथा २३० में निषिद्ध व्यवहार के विषय में कहा है कि - "बाल, वृद्ध, श्रांत अर्थात् परिश्रमी, थका हुआ या ग्लान अर्थात् व्याधिग्रस्त, रोगी, दुर्बल, श्रमण मूल का छेद जैसे न हो, उस प्रकार से अपने योग्य आचरण आचरो। "बाह्य प्रतिकूल परिस्थितियों में समाधिधारक या साधक मुनि को शुद्ध उपयोग से अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में प्रवृत्ति करना तथा लोकव्यवहार से विरक्त रहना उत्कृष्ट निश्चय वैयावृत्त्यतप है ।२६” तात्पर्य यह है कि सूत्र में कथित दश प्रकार के मुनियों की सेवा करना अर्थात् उनके शरीर सम्बन्धी व्याधि, दुष्ट मनुष्य और तिर्यंचकृत उपसर्ग, क्षुधादि परीषह तथा मिथ्यात्वादि की उत्पत्ति हो जाये तो प्रासुक औषधि, भोजन, वसतिका, काष्ठ, फलक, घास की सेज, धर्मोपदेश आदि धर्मोपकरणों से उनका इलाज करना । उपदेश देकर फिर सम्यक्त्व ग्रहण कराना इत्यादि व्यवहार वैयावृत्त्य तप है। यह व्यवहार वैयावृत्त्य तप सेवा करने वाले साधु को होता है तथा वैयावृत्त्य कराने की इच्छा का समाधिधारी मुनि द्वारा निषेध वर्तना वास्तविक अर्थात् निश्चय वैयावृत्त्य तप है। यदि भोजन, पानी, औषधि आदि बाह्य सामग्री नहीं हो तो अपने शरीर से उनकी सेवा करना । कफ, नासिका मल, मूत्र, विष्टादि को दूर फेंक आना; उन्हें जिस प्रकार सुख हो, उस प्रकार उनके शरीर की सेवा आदि करना । जिस प्रकार उनकी धर्म में रुचि, प्रवृत्ति हो जाए, उस प्रकार उपदेश देकर धैर्य धारण कराना, उनके अनुकूल आचरण करना; वह समस्त व्यवहार वैयावृत्त्य तप है।२७ (१) समाधि उत्पन्न कराना, (२) ग्लानि का निवारण, (३) प्रवचनवात्सल्य, (४) असहायपने की अनुभूति न होने देना, (५) सर्वज्ञ की आज्ञा का परिपालन, (६) निर्दोष रत्नत्रय का दान और (७) संयम में सहयोग करना - ये वैयावृत्त्य के उद्देश्य हैं। साधु सेवा के लिए गृहस्थों से प्राप्त सामग्री के सम्बन्ध में आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने प्रवचनसार की २३० गाथा की तत्त्वप्रदीपिका टीका में आज्ञा दी है कि - "रोगी, गुरु, बाल तथा वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्त्य के लिए शुभोपयोग से युक्त लौकिकजनों के साथ बातचीत निन्दित नहीं है। यह प्रशस्तभूत कहलाती है।" ४. स्वाध्याय तप :- “आलस्य का त्यागकर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय तप है।" "जिनोपदिष्ट बारह अंगों और चौदह पूर्वो का उपदेश करना, प्रतिपादन आदि करना स्वाध्याय है।२९" स्वाध्याय शब्द की निरुक्ति - स्व + अध्याय = स्वाध्याय । यहाँ 'स्व' से तात्पर्य आत्मा के लिए हितकारक और 'अध्याय' का अर्थ शास्त्रों का अध्ययन अर्थात् आत्मा के लिए हितकारक परमागम शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय है। तात्पर्य यह है कि आत्मकल्याण के पावन उद्देश्य से आत्महितकारी शास्त्रों का योग्य विधिपूर्वकअध्ययन-अध्यापन, श्रवणमनन, चिन्तवन-उपदेश आदि स्वाध्याय कहलाता है। सम्यग्ज्ञानरहित पक्षोपवास व मासोपवास करनेवाले अज्ञानी से भोजन करनेवाला स्वाध्याय में तत्पर सम्यग्दृष्टि परिणामों की विशुद्धि अधिक कर लेता है।३० ___ बारह तपों में मात्र व्युत्सर्ग एवं ध्यान तप ही स्वाध्याय तप से महान माने गये हैं। शेष सभी तपों की तुलना में स्वाध्याय तप का विशेष महत्त्व
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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