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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
१८. मल-परीषहजय :- “स्व और पर के द्वारा क्रमशः मल के अपचय और उपचय के संकल्प के अभाव को मल-परीषहजय कहते हैं।५६
अपकायिक जीवों की पीड़ा का परिहार करने के लिए जिसने मरणपर्यन्त अस्नानव्रत स्वीकार किया है - ऐसे परम अहिंसक साधु के सूर्य की किरणों के ताप से उत्पन्न हुए पसीने में पवन के द्वारा लाया गया धूलिसंचय चिपक गया है, कोढ़, खाज और दाद के होने से खुजली के होने पर भी जो खुजलाने, मर्दन करने और दूसरे पदार्थ से घिसनेरूप क्रिया से रहित हैं, तथा जो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी विमल जल के प्रक्षालन द्वारा कर्ममलपंक को दूर करने के लिए निरन्तर उद्यतमति हैं, उनके मलपीड़ासहन या मल-परीषहजय कहा गया है।५०
जो वीतराग मुनिराज जीवों की दया पालन करने के लिए, राग को नष्ट करने के लिए और पापकर्मरूपी मल को नाश करने के लिए स्नान आदि को दूर से ही त्याग देते हैं और संस्कार या प्रक्षालन आदि से रहित आधे जले हुए मुरदे के समान मल, पसीना, नाक का मल आदि से लिप्त हुए शरीर को धारण करते हैं, उसको मल-परीषहजय कहते हैं।५८"
१९. सत्कार-पुरस्कार-परीषहजय :- “मान और अपमान में तुल्यभाव होना, सत्कार-पुरस्कार की भावना नहीं होना, सत्कार-पुरस्कारपरीषहजय है।५९”
“मुझे लोग प्रणाम नहीं करते हैं, मेरी भक्ति नहीं करते हैं, हर्षपूर्वक खड़े होकर आसनादि नहीं देते हैं" - ऐसे परिणाम जो साधु कभी नहीं करते हैं, जिन्हें अपने आत्मकल्याण का ही ध्यान रहता है, जो लोगों से सत्कार-पुरस्कार की इच्छा नहीं रखते; उस साधु को सत्कार-पुरस्कारपरीषहजय होता है।"
२०. प्रज्ञा-परीषहजय :- “प्रज्ञा (बुद्धि) का विकास होने पर भी प्रज्ञामद नहीं करना प्रज्ञा-परीषहजय है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान की अधिकता होने पर भी मान नहीं करना सो प्रज्ञा-परीषहजय है।"
बाईस परीषहजय
मैं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रों में विशारद हूँ; शब्दशास्त्र, न्यायशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र में निपुण हूँ; मेरे सामने अन्य लोग सूर्य की प्रभा से अभिभूत हुए जुगनू के समान बिल्कुल सुशोभित नहीं होते हैं; इस प्रकार विज्ञानमद का निरास होना प्रज्ञा-परीषहजय जानना चाहिए ।६२"
२१. अज्ञान-परीषहजय :- “अज्ञान के कारण होनेवाले अपमान एवं ज्ञान की अभिलाषा को सहन करना अज्ञान-परीषहजय है।५२" __ "जो मुनि स्वल्पज्ञानी हैं, उनके लिए अन्य दुष्ट लोग कहें कि 'यह अज्ञानी है, परमार्थ को कुछ नहीं जानता, पशु के समान हैं' इस प्रकार कड़वे वचन आदि को सहन करते हैं तथा 'मैं इस प्रकार का दुर्धर और पापरहित घोर तपश्चरण करता हूँ तो भी मुझे ज्ञान का कुछ भी अतिशय प्रगट नहीं होता, इस प्रकार जो अपने मन में कभी कलुषता नहीं लाते; उसको अज्ञान-परीषहजय कहते हैं।६४"
२२. अदर्शन-परीषहजय :- “दीक्षा लेना आदि अनर्थक है', इस प्रकार मानसिक विचार नहीं होने देना अदर्शन-परीषहसहन है।५"
“शास्त्रों में यह सुना जाता है कि देव लोग श्रेष्ठ योग धारण करनेवाले महा तपस्वियों के लिए प्रातिहार्य प्रगट करते हैं, उनका अतिशय प्रगट करते हैं; परन्तु यह कहना प्रलापमात्र है, यथार्थ नहीं है; क्योंकि मैं बड़ेबड़े घोर तपश्चरण तथा दुर्धर अनुष्ठान पालन करता हूँ तो भी देव लोग मेरा कोई प्रसिद्ध अतिशय प्रगट नहीं करते, इसलिए कहना चाहिए कि यह दीक्षा लेना भी व्यर्थ है।' इस प्रकार के कलुषित संकल्प-विकल्प को जो मुनिराज अपने सम्यग्दर्शन की विशुद्धि से कभी नहीं करते हैं, उसको अदर्शन परीषहजय कहते हैं।६६" । परीषह और कायक्लेश में अन्तर
"जो अपने आप सहज होता है, प्राकृतिक होता है, वह परीषहजय है और जो स्वयं आमंत्रित किया जाता है, वह कायक्लेश है - जैसे - डांस-मच्छर, सर्दी-गर्मी प्राकृतिक है अतः यह परीषहजय है और गर्मी में
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