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________________ ११४ चलते फिरते सिद्धों से गुरु ११५ पर्वत पर जाना सर्दी में नदी किनारे जाकर तप करना यह काय क्लेश है।" “एक साथ एक मुनि के उन्नीस परीषह हो सकते हैं।" केवली के क्षुधादि परीषह नहीं होते, क्योंकि - १. केवली जिन के शरीर में निगोद और त्रस जीव नहीं रहते। वे परम औदारिक शरीर के धारी होते हैं; अतः भूख, प्यास और रोगादिक का कारण नहीं रहने से उन्हें भूख, प्यास और रोगादिक की बाधा नहीं होती। देवों के शरीर में इन जीवों के न होने से जो विशेषता होती है, उससे अनन्तगुणी विशेषता इनके शरीर में उत्पन्न हो जाती है। २. असाता की उदीरणा छठवें गुणस्थान तक ही होती है, आगे नहीं होती, इसलिए उदीरणा के अभाव में वेदनीय कर्म क्षुधादिरूप कार्य का वेदन कराने में असमर्थ है। जब केवली जिन के शरीर के पानी और भोजन की ही आवश्यकता नहीं रहती, तब इनके न मिलने से जो क्षुधा और तृषा होती है, वह उनके हो ही कैसे सकती है? ३. सुख-दुःख का वेदन वेदनीय कर्म का कार्य होने पर भी वह मोहनीय की सहायता से ही होता है, चूँकि केवली जिन के मोहनीय का अभाव होता है, अतः यहाँ क्षुधादिरूप वेदनाओं का सद्भाव मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। इन प्रमाणों से निश्चित होता है कि केवली जिन के क्षुधादि परीषह नहीं होते। आज इतना ही, बाकी फिर। ॐनमः। इसप्रकार आज आचार्यश्री ने अपने प्रवचन में बाईस परीषहों की चर्चा करके श्रोताओं को साधुओं की परीषहजय से उत्पन्न आनन्दानुभूति से परिचित कराया। परीषहजय सम्बन्धी इस विवेचन से हमें ज्ञात होता है कि मुक्तिमार्ग के साधक वीतरागी सन्तों की अन्तर पवित्रता तो परमोत्कृष्ट है ही, साथ ही उनका बाह्य जीवन भी वीतरागता का जीवन्त आदर्श है। वे परीषहों की विपरीत परिस्थितियों में भी स्वरूप-साधना में मेरुवत् अचल रहते हैं। उनके इस आदर्श कष्ट सहिष्णु जीवन से हम भी कष्ट बाईस परीषहजय सहिष्णु बनें, अहिंसक जीवन जिएँ। सोचें, कि यदि पुनः पराधीन पशु जीवन मिल गया तब तो यह सब सहना ही पड़ेगा। यदि स्वाधीनता में सहन किया तो कर्मों की निर्जरा होगी। अतः विपरीत संयोगों एवं परिस्थितियों की इन उदयाधीन विपरीत परिस्थितियों में भी हम अपने लक्ष्य को शिथिल न पड़ने दें और निरन्तर ही अपने लक्ष्यपूर्ति की दिशा में अपने कदम आगे बढ़ाते रहें। १. तत्त्वार्थसूत्र, ९/८ २. सर्वार्थसिद्धि, ९/२ ३. भगवती आराधना टीका, ११६५ ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ९८ ५. वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ३५ ६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-३, पृष्ठ-३३ ७. छहढाला २/४ ८. मोक्षमार्गप्रकाशक, अध्याय-७, पृष्ठ २२९ ९. अनगार धर्मामृत, ६/८३) १०. वृहद्रव्यसंग्रह टीका ५७ ११. तत्त्वार्थसूत्र, ९/९) १२. सर्वार्थसिद्धि ९/९ १३. तत्त्वार्थ टीका ९/९ १५. सर्वार्थसिद्धि, ९/९ १६. अर्थप्रकाशिका, ९/९ १८. अर्थप्रकाशिका, ९/९ १९. मूलाचार प्रदीप, ३१३७ २१. अर्थप्रकाशिका, ९/९ २२. मूलाचार प्रदीप, ३१३८-४० २४. सर्वार्थसिद्धि, ९/९ २५. अर्थप्रकाशिका, ९/९ २६. मूलाचार प्रदीप, गा.३१४३-४४ ३०. सर्वार्थसिद्धि, ९/९ ३२. सर्वार्थसिद्धि, ९/९ ३३. अर्थप्रकाशिका, ९/९ ३४. मूलाचार प्रदीप, ३१४७-४८ ३६. मूलाचार प्रदीप, ३१४९-५० ३८. सर्वार्थसिद्धि, ९/९ ३९. मूलाचार प्रदीप, ३१५१-५२ ४१. तत्त्वार्थवार्तिक, ९/९ ४२. मूलाचार प्रदीप, ३१५३-५४ ४४. मूलाचार प्रदीप, ३१५५-५६ ४५. अर्थप्रकाशिका, ९/९ ४९. मूलाचार प्रदीप, ३१६० ५१. मोक्षशास्त्र, ९/९ ५३. अर्थप्रकाशिका, ९/९ ५४. मूलाचार प्रदीप, ३१६१-६२ ५५. तत्त्वार्थवार्तिक, ९/९ ५६. सर्वार्थसिद्धि,९/९ ५७. अर्थप्रकाशिका, ९/९, पृष्ठ ४१४ ५८. सर्वार्थसिद्धि एवं वार्तिक ९/९ ५९. मूलाचार प्रदीप, ३१६५-६६ ६१. अर्थप्रकाशिका, ९/९ ६३. सर्वार्थसिद्धि, ९/९ ६५. मूलाचार प्रदीप, ३१७१-७२ ६७. मूलाचार प्रदीप, ३१७४-७६ ६८. सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक, ९-१९ ६९.तत्त्वार्थसूत्र, ९/१७ नोटः टिप्पणी नं. १४, १७, २०, २३, २७, २९, ३१, ३५, ३७, ४०, ४१, ४३, ४६, ४७, ४८, ५०, ५२, ५५, ६०, ६२,६४, ६६ के लिए देखें तत्वार्थ राजवार्तिक अध्याय ९ का सूत्र ९। 58
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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