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________________ बाईस परीषहजय १११ १६. रोग-परीषहजय :- “नाना व्याधियों के होने पर भी उसके प्रतीकार की इच्छा नहीं करनेवाले के रोग-परीषहजय होता है।५१" "नाना व्याधियों के होने पर भी उनका इलाज करने की इच्छा नहीं करते वह रोग-परीषहजय है।५२” "जो मुनिराज अपने कर्मों की निर्जरा हेतु कोढ़, अपने पाप कर्मों के उदय से उत्पन्न हुए उदरशूल, बातज्वर, पित्तज्वर आदि दुःखों को देनेवाले ऐसे सैकड़ों असह्य रोगों की महा वेदना को बिना प्रतिकार अथवा बिना इलाज कराये सहन करते हैं, उन बुद्धिमानों के रोग-परीषहजय होता ११० चलते फिरते सिद्धों से गुरु को सुन करके भी, मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक उनको सहन करते हैं, उनको सुनकर कभी किसी प्रकार का क्लेश नहीं करते, उन मुनियों के आक्रोश परीषहजय कहा जाता है।" ___कठोर वचन सुनते समय मुनिराज विचार करते हैं कि - सामनेवाले व्यक्ति के कर्म के उदय से अज्ञानभाव हो रहा है, हमें देखकर इन्हें दुःख उत्पन्न हुआ है, ये कर्म के परवश हैं, यह इनका अपराध नहीं, मेरे ही अशुभकर्म का उदय है - ऐसा विचारकर दूसरों के द्वारा कहे गये दुर्वचनों से क्लेश को प्राप्त नहीं होते हुए अनिष्ट वचनों को सह लेते हैं, उनके आक्रोश परीषहजय होता है।४५ १३. वध-परीषहजय :- “मारनेवालों के प्रति भी क्रोध नहीं करना वध-परीषहजय है।४६" “चारों तरफ घूमनेवाले, चोर, म्लेच्छ, भील, शत्रु और द्वेषाविष्ट मिथ्यादृष्टि तपस्वी आदि के द्वारा क्रोधपूर्वक ताड़न, बन्धन, शस्त्राभिघात आदि के द्वारा मारने पर भी जो मुनि बैर नहीं करते हैं। यह उनका वध परीषह है।" १४. याचना-परीषहजय :- “प्राणों का नाश होने पर भी आहारादि की याचना नहीं करना, दीनता से निवृत्त होना याचनापरीषहजय है।४८ सैकड़ों व्याधि और क्लेशों के हो जाने पर भी तथा अनेक उपवासों के बाद पारणा करने पर भी कभी औषधि, आहार अथवा जल की याचना नहीं करना याचना-परीषहजय कहलाता है।४९" १५. अलाभ-परीषहजय :- “आहार, वसतिका आदि के अलाभ में भी लाभ के समान सन्तुष्ट रहनेवाले तपस्वी के अलाभ-परीषहजय होता है।५० आहारादि प्राप्त न होने पर भी अपने ज्ञानानन्द के अनुभव द्वारा विशेष सन्तोष धारण करना अलाभ-परीषहजय है।५०" १७. तृण-परीषहजय :- “तृणादि के निमित्त से वेदना के होने पर भी मन का निश्चल रहना, उसमें दुःख नहीं मानना तृणस्पर्शपरीषहजय है।५४” “सूखा तिनका, कठोर कंकर, काँटा, तीक्ष्ण मिट्टी और शूल आदि के बिंधने से या गड़ने से पैरों में वेदना के होने पर उसमें जिसका चित्त उपयुक्त नहीं है तथा चर्या, शय्या और निषद्या में प्राणिपीड़ा का परिहार न करने के लिए जिसका चित्त निरन्तर प्रमादरहित है, उसके तृणादिस्पर्शबाधा-परीषहजय होता है।" "तृण-कण्टक आदि के निमित्त से उत्पन्न हुई वेदना को सहनेवाले साधु के तृणस्पर्श-परीषहजय होता है। शरीर में हुई व्याधि, मार्गगमन से हुई थकान तथा शीत-उष्णता जनित खेद को दूर करने के लिए अपने निमित्त बिना सीधे-सँवारे-व्यवस्थित किये गये सूखे तृण, पत्र, कठोरभूमि, कण्टक, काष्टकफल, शिलातल आदिक प्रासुक देशों में शैया-आसन आदि करने से तृणादि से प्राप्त हुई बाधा से प्राप्त शरीर में उत्पन्न खाज आदि का विकार हो जाने पर भी तृण-कण्टक-कंकर-कठोर भूमि के स्पर्श जनित दुःख का अनुभव नहीं करनेवाले साधु के तृणस्पर्श-परीषह सहना होता है।" 56
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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