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बाईस परीषहजय
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चलते फिरते सिद्धों से गुरु को रोक लिया है तथा जिन्होंने मन्द मुस्कान, कोमल सम्भाषण, तिरछी नजरों से देखना, हँसना, मदभरी धीमी चाल से चलना और कामबाण मारना आदि को निष्फल कर दिया है; उनके स्त्री-परीषहजय होता है।" ३२
"सुन्दर स्त्रियों के रूप का स्मरण, अवलोकन, स्पर्शनादि से दूर रहना, स्त्री-परीषहजय है।३३
"कोई मुनिराज किसी एकान्त स्थान में विराजमान हों और वहाँ पर उन्मत्त यौवनवती स्त्रियाँ आकर हाव, भाव, विलास, शरीर के विकार, मुख के विकार, भोहों के विकार, गाना बजाना, बकवाद करना, कटाक्षरूपी बाणों का फेंकना और शृंगाररस का प्रदर्शन आदि कितने ही कारणों से व्रतों को नाश करनेवाला अनर्थ करती हों तो भी वे मुनिराज निर्विकार होकर उस उपद्रव को सहन करते हैं; इसको स्त्री-परीषहजय कहते हैं।' ३४
९. चर्या-परीषहजय :- “गमन सम्बन्धी दोषों का निग्रह करना चर्या-परीषहजय है।३५”
जो मुनिराज भयानक वन में, पर्वत पर, किलों में और नगरों में विहार करते हैं तथा उस विहार में पत्थरों के टुकड़े, काँटे आदि के लग जाने से पैरों में अनेक छोटे-छोटे घाव हो जाते हैं, तथापि वे दिगम्बर मुनिराज उन सबको सहन करते हैं, जीतते हैं; इसको चर्या-परीषहजय कहते हैं।३६
१०. निषद्या परीषहजय :- “संकल्पित आसन से विचलित नहीं होना निषद्या-परीषहजय है।"
"जिनमें पहले रहने का अभ्यास नहीं है - ऐसे श्मशान, उद्यान, शून्यघर, गिरिगुफा आदि में जो निवास करते हैं, आदित्य के प्रकाश और स्वेन्द्रिय ज्ञान से परीक्षित प्रदेश में जिन्होंने नियम-क्रिया की है, जो नियत काल निषद्या लगाकर बैठते हैं, सिंह और व्याघ्र आदि की नाना प्रकार की भीषण ध्वनि के सुनने से जिन्हें किसी प्रकार का भय नहीं होता, चार
प्रकार के उपसर्ग के सहन करने से जो मोक्षमार्ग से च्युत नहीं हुये हैं तथा वीरासन आदि आसन के लगाने से जिनका शरीर चलायमान नहीं होता उनके करना निषद्या-परीषहजय निश्चित होता है।"
“जो मुनिराज किसी गुफा में पर्वत पर या वनादिक में वज्रासन आदि कठिन आसन से विराजमान होते हैं और उस समय भी अनेक उपसर्ग उन पर आ जाते हैं, तथापि वे मुनिराज अपने आसन से कभी चलायमान नहीं होते; इसीप्रकार कठिन आसन धारण करके भी वे अपने को ध्यान में ही लगाये रहते हैं और अपने योग को सदा अचल बनाये रखते हैं; उनके इस परीषह सहन करने को निषद्या-परीषहजय कहते हैं।'
११. शय्या-परीषहजय :- “आगम में कथित शयन से चलित नहीं होना, आगमानुसार शयन करना शयन-परीषहजय कहलाता है।४०"
“यह स्थान सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि दुष्ट जीवों से भरा हुआ है, यहाँ से शीघ्र ही निकल जाना श्रेयस्कर है, कब यह रात्रि समाप्त होगी' - इस प्रकार के संकल्प-विकल्पों को नहीं करनेवाले, सुख-स्थान के मिलने पर भी हर्ष से उन्मत्त नहीं होनेवाले, पूर्व में अनुभूत मृदु शय्या का स्मरण न करके आगमोक्त विधि से शयन करनेवाले साधुजनों के शय्या-परीषहजय होता है।४९”
"जो मुनि स्वाध्याय, ध्यान, योग और मार्ग का परिश्रम दूर करने के लिए युक्तिपूर्वक मुहूर्तमात्र की निद्रा का अनुभव करते हैं, उस समय में भी अपने हृदय को अपने वश में रखते हैं, दण्ड के समान वा किसी एक करवट से सोते हैं, उसको शय्या-परीषहजय कहते हैं।'
१२. आक्रोश-परीषहजय :- “अनिष्ट वचनों को सहन करना आक्रोश-परीषहजय है।४३”
"जो मुनिराज कठोर वचनों को, अपमानजनक शब्दों को, तिरस्कार या धिक्कार के वचनों को अथवा अनेक प्रकार के गाली-गलौच के शब्दों
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