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बाईस परीषहजय
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चलते फिरते सिद्धों से गुरु ग्रीष्म वस्तु के सूर्य की अति उष्ण किरणों से जिनका शरीर सन्तापित रहता है, तृषा से उत्पन्न गर्मी, अनशन तप के कारण पित्त के प्रकोप से हुई गर्मी तथा मार्ग की थकान से उत्पन्न गर्मी से पीड़ित रहने पर भी मुनि आधुनिक एयर कंडीशनर व कूलर आदि का उपयोग तो करते ही नहीं, जल में अवगाहन, चन्दन-कर्पूरादि का लेप, जल के छिड़काव से ठण्डी भूमि का स्पर्श, केले के पत्तों द्वारा की गई हवा, बर्फ इत्यादि शीतल पदार्थों की चाह भी उनके चित्त में उत्पन्न नहीं होती। ___मुनि अपने चित्त में विचार करते हैं कि “मैंने इस संसार में पराधीन होकर अति तीव्र उष्णवेदना भोगी है। अब तो मैं मोक्षमार्ग का पथिक कर्म-क्षय करने के कारणरूप तप करने में उद्यमी हुआ हूँ; इसलिए संयम की घातक क्रियाओं की उपेक्षा करके मुझे चारित्र की रक्षा करना है।२९" ऐसे स्वच्छ-शान्तभाव के धारक साधु के उष्ण-परीषहजय होता है।
"उस समय वे निराश्रय पशुओं, मनुष्यों व नारकियों के कर्मों के उदय से होनेवाली तीव्र उष्णवेदना से अपनी तुलना करते हैं और श्रेष्ठ ज्ञानरूपी अमृत का पान करते हैं, इन दोनों कारणों से वे उस गर्मी की वेदना को जीतते हैं। वे मुनिराज पानी के छिड़काव से व पानी में नहाने से गर्मी की बाधा को कभी दूर नहीं करते ।२२”
५. दंशमशक-परीषहजय :- "दंशमशक की बाधा सहन करना, उसका प्रतीकार नहीं करना दंशमशक परीषहजय कहलाता है।" ___"दंशमशक' पद से डांस-मच्छर, मक्खी, पिस्सू, खटमल, कीट, चींटी और बिच्छू आदि का ग्रहण होता है। जो इनके द्वारा की गयी बाधाओं को बिना प्रतीकार किये सहन करते हैं, मन, वचन और काय से उन्हें बाधा नहीं पहुंचाते हैं वह दंशमशक-परीषहजय है।४”
“जिन्होंने शरीर को ढाँकने का त्याग किया है, अपने रहने के स्थान को वस्त्रों से भी बाँधकर घेरने का त्याग किया है, किसी स्थान विशेष में रहने का नियम नहीं है, दूसरों के लिए बनाये गये, मठ-मकान-गुफा
तलहटी आदि में रात्रि व दिन में निवास करते हैं। डाँस, मच्छर, बिच्छू इत्यादि तीव्रवेदना उत्पन्न करनेवाले अनेक जीवों के तीक्ष्ण डंकों द्वारा मर्मस्थान में काट लेने पर भी अपने परिणामों में विषाद नहीं करते हैं। अपने कर्म के उदय का विचार करते हैं। किसी विद्या, मंत्र, औषधि आदि उपचार से उस परीषह को दूर करने की इच्छा नहीं करते हैं। कर्मरूपी शत्रु के नाश के लिए उद्यमयुक्त होकर समस्त जीवों के प्रति दया के उद्यमी होकर रहते हैं, उनके दंशमशक-परीषहजय होता है ।२५”
६. नग्न-परीषहजय :- नग्न अवस्था धारण करने से बहुत से ठण्डी-गर्मी के उपद्रव होते हैं, अनेक जीव काट लेते हैं और अनेक लोग उनको देखकर हँसते हैं, इन सब उपद्रवों को दिगम्बर अवस्था को धारण करनेवाले मुनिराज बिना किसी प्रकार के संक्लेश परिणामों के धैर्य के साथ सहन करते हैं, इसे नाग्न्य-परीषहजय कहते हैं ।२६
७. अरति-परीषहजय :- संयम में रति करना या संयम विषयक अरति को दूर करना अरति-परीषहजय कहलाता है। जो संयत इन्द्रियों के इष्ट विषय-सम्बन्ध के प्रति निरुत्सुक हैं; जो गीत, नृत्य और वादित्र आदि से रहित शून्यघर, देवकुल, तरुकोटर और शिलागुफा आदि स्थानों पर स्वाध्याय, ध्यान और भावना में लीन हैं; पहले देखे हुए, सुने हुए
और अनुभव किये हुए विषयभोग के स्मरण, विषयभोग सम्बन्धी कथा नहीं करते/सुनते उनके अरति-परीषहजय होता है।३०
८. स्त्री-परीषहजय :- वरांगनाओं का रूप देखने, उनका स्पर्श करने के भावों की निवृत्ति को स्त्री-परीषहजय कहते हैं। ३१ “बगीचा और भवन आदि एकान्त स्थानों में नवयौवन, मदविभ्रम और मदिरापान से प्रमत्त हुई स्त्रियों के द्वारा बाधा पहुँचाने पर कछुए के समान जिसने इन्द्रिय और हृदय के बहिर्मुखी उपयोग को अपने में समेट लिया और मनोविकार
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