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चलते फिरते सिद्धों से गुरु पात्र में भोजन नहीं करते, किन्तु अपने हाथ में ही भोजन करते हैं; उनके शरीर पर वस्त्रादिक भी नहीं होते।
पुनश्च, अनशन, अवमौदर्य (भूख से कम खाना), वृत्तिपरिसंख्यान (आहार को जाते हुए अटपटे कठोर नियम लेना) आदि तप करते हुए दो दिन, चार दिन, आठ दिन, पक्ष, महीना आदि निराहार में व्यतीत हो जाते हैं और योग्य काल में, योग्य क्षेत्र में अन्तरायरहित शुद्ध निर्दोष आहार न मिले तो भी वे भोजन ग्रहण नहीं करते और इसकारण चित्त में कोई भी विषाद, दुःख या खेद नहीं करते, किन्तु धैर्य धारण करते हैं। वे क्षुधा परीषहजयी होते हैं।
असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा हो, तभी क्षुधा-भूख उत्पन्न होती है और उस वेदनीयकर्म की उदीरणा छठवें गुणस्थानपर्यन्त ही होती है, उससे ऊपर के गुणस्थानों में नहीं होती। छठवें गुणस्थान में रहनेवाले मुनि के भी इतना पुरुषार्थ होता है कि यदि योग्य समय, निर्दोष भोजन का योग न बने तो आहार का विकल्प तोड़कर निर्विकल्पदशा में लीन हो जाते हैं, तब उनके क्षुधा परीषहजय कहा जाता है ।१३
२. तृषा-परीषहजय :- "तृषा (प्यास) की उदीरणा के कारण मिलने पर भी प्यास के वशीभूत नहीं होना और उसके प्रतीकार को नहीं चाहना तृषा-परीषहजय है।१४”
"जिसने जल से स्नान करने, उसमें अवगाहन करने और उससे सिंचन करने का त्याग कर दिया है, जिसका पक्षी के समान आसन और
आवास नियत नहीं है; जो अति खारे, अति स्निग्ध और अति रूक्ष, प्रकृतिविरुद्ध आहार, ग्रीष्मकालीन आतप, पित्तज्वर और अनशन आदि के कारण उत्पन्न हुई तथा शरीर और इन्द्रियों को मथनेवाली तृषा का प्रतीकार करने में आदरभाव नहीं रखता और जो पिपासारूपी अग्निशिखा को सन्तोषरूपी घड़े में भरे हुए समाधिरूपी जल से शान्त कर रहा है,
बाईस परीषहजय
१०५ उसका पिपासाजय परीषह प्रशंसा के योग्य है ।१५"
ग्रीष्मऋतु में आतप, पित्तज्वर, अनशनादि तप से हुई पानी की कमी, शरीर और इन्द्रियों को मथनेवाली तृषा को तृप्त करने के उपाय का जिनके मन में विकल्प ही नहीं रहता है। ग्रीष्मऋतु के तीक्ष्ण सूर्य की किरणों से सन्तापित वनभूमि में निकट ही तालाब होने पर भी उसकी ओर अपने मन को चलायमान नहीं करते, जलकाय के जीवों को बाधा का परित्याग करने की इच्छा से जल की चाह रहित होते हैं।
ज्ञान-ध्यानरूप जल से तृषारूप अग्नि की शिखा को बुझाते हैं, उन साधुओं के तृषा-परीषह का जीतना होता है।१६
३. शीत-परीषहजय :- शीत के कारणों के मिलने पर शीत के प्रतीकार की अभिलाषा नहीं करना, संयम का परिपालन करना शीतपरीषहजय कहलाता है।
"शीतपरीषह में मुनिराज विचार करते हैं कि - हे आत्मन्! तूने नरकों में असंख्यात वर्षों तक अनन्त बार कर्मों के वश होकर दुःसह शीतवेदना भोगी है, उसके सामने यह शीतवेदना तो कुछ भी नहीं है। शीत को दूर करने में समर्थ अग्नि, विद्या, मंत्र, औषधि, पत्र, वल्कल, तृण आदि के उपयोग करने के सम्बन्ध में मन में कुछ भी विचार नहीं करते हैं। अपने शरीर को पराये शरीर जैसा मानते हैं। पूर्वकाल में भोगे कामसुख को असार जानकर उसका स्मरण नहीं करते तथा धैर्य से निजस्वरूप का अवलोकन करते हुए आनन्द सहित रात्रि व्यतीत करते हैं।'
"उस समय मुनिराज आत्मध्यान से अपनी शीत वेदना को दूर करते हैं और उस शीत की वेदना को शान्त करने के लिए न तो कुछ ओढ़ने का चिन्तवन करते हैं और न शीत को दूर करनेवाले अग्नि आदि पदार्थों का चिन्तवन करते हैं।"
४. उष्ण-परीषहजय :- चारित्र की रक्षा करने के लिए दाह का प्रतीकार करने की इच्छा का अभाव होना उष्ण-परीषहजय है। २०
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