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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
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के द्वारा निज परमात्मा की भावना से उत्पन्न नित्यानन्दरूप सुखामृत अनुभव से चलित नहीं होना परीषहजय है। "
"गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास, मच्छर आदि की बाधाएँ आने पर आर्त परिणामों का न होना अथवा ध्यान से न चिगना परीषहजय है ।
यद्यपि निम्न भूमिकाओं में साधक को उनमें पीड़ा का अनुभव होता है, परन्तु वैराग्य भावनाओं के चिन्तन-मनन द्वारा वे परमार्थ से चलित नहीं होते, दुःखी नहीं होते। ६"
"आत्महित हेतु विराग-ज्ञान, ते लखें आपको कष्ट दान ।। आत्मा के हित के हेतु जो वैराग्य एवं ज्ञान है वह अज्ञानी जीवों को ही कष्टदायक लगते हैं। ज्ञानी तो वैराग्य और ज्ञान को आनन्दमय ही मानते हैं। "
यह बात भी विचारणीय है कि संक्लेशरहित भावों से अर्थात् समभावपूर्वक परीषह को जीत लेने से ही संवर होता है। तात्पर्य यह है कि परीषहजय में पीड़ा रहने पर भी वह कष्टप्रद नहीं लगती; क्योंकि परीषह जय का हर्ष अधिक होता है। ज्ञानी आत्मानंद के सम्मुख पीड़ा की परवाह ही नहीं करते।
“अज्ञानी जीव क्षुधादिक होने पर उनके नाश का उपाय तो नहीं करता; परन्तु दुःख सहने को परीषहजय मानता है। उसे परीषह सहना मानता है। सो वहाँ क्षुधादि के नाश का उपाय तो नहीं किया और अन्तरंग में क्षुधादि अनिष्ट सामग्री मिलने पर दुःखी हुआ, रति आदि का कारण मिलने पर सुखी हुआ सो वे दुःख-सुखरूप जो परिणाम हैं, वही आर्त्तध्यान - रौद्रध्यान हैं- ऐसे भावों से संवर कैसे हो? और इसे परीषहजय कैसे कहा जा सकता है?
दुःख का कारण मिलने पर दुःखी न हो और सुख का कारण मिलने पर सुखी न हो, ज्ञेयरूप से उनका जाननेवाला ही रहे, वही सच्चा परीषहजय है।"
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बाईस परीषहजय
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“जो मुमुक्षु पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करने के लिए आत्म-स्वरूप में स्थित होकर क्षुधादि बाईस प्रकार की वेदनाओं से दुःखी न होकर निराकुल रहकर सहजता से सहता है, उसी को परीषहविजयी कहते हैं। "
"परीषहजयश्चेति ध्यानहेतवः । परीषहजय ध्यान का कारण है। १०" उपर्युक्त आगम उद्धरणों के आलोक में नवीन कर्मबन्ध का रोकना संवर और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करना ही परीषहजय का एकमात्र उद्देश्य है, प्रयोजन है। मात्र दुःख सहन करना परीषहजय का उद्देश्य नहीं है और न दुःख सहने को परीषहजय कहा ही जाता है। सच तो यह है कि आत्म- उपयोग की दशा में भूख-प्यासादि की वेदना का अधिक अनुभव नहीं होता, जो वेदना का ज्ञान होता है उससे मुनि दुःखी नहीं होते, मात्र ज्ञाता रहते हैं। संवरपूर्वक निर्जरा होकर मुक्ति की उपलब्धि होती है।
जिनागम में बाईस परीषहों का उल्लेख इस प्रकार हैं
१. क्षुधा, २. तृषा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंशमशक, ६. नाग्न्य, ७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. निषद्या, ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३. वध, १४. याचना, १५. अलाभ, १६. रोग, १७. तृणस्पर्श, १८. मल, १९. सत्कार पुरस्कार, २०. प्रज्ञा, २१. अज्ञान और २२. अदर्शन ये बाईस परीषह हैं।
१. क्षुधा - परीषह :- क्षुधारूपी अग्नि की ज्वाला को धैर्यरूपी जल से शान्त करना । जो मुनि निर्दोष आहार नहीं मिलने पर या अल्पमात्रा में मिलने पर क्षुधा से वेदना को प्राप्त नहीं होता, अकाल में जिसे आहार लेने की इच्छा नहीं होती। जो स्वाध्याय और ध्यानभावना में तत्पर रहते हैं, जिन्होंने बहुत बार स्वकृत और परकृत अनशन व अवमौदर्य तप किया है, जो नीरस आहार को लेते हैं, जिसका गला सूख गया है। ऐसी क्षुधाजन्य बाधा का चिन्तन नहीं करना क्षुधा - परीषहजय है । १२
क्षुधा परीषह सहन करना योग्य है; साधुओं का भोजन तो गृहस्थ पर ही निर्भर है, भोजन के लिए कोई वस्तु उनके पास नहीं होती, वे किसी