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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
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परिग्रह की श्रेणी में आ जायेंगे, जिसके साधु सर्वथा त्यागी हैं।
अनुमति, आरंभ एवं परिग्रह त्याग प्रतिमा लेते समय पंचमगुणस्थान में भी जब ये आवासादि बनवाना, बनाने की अनुमति देना, आरंभ व परिग्रह की अनुमोदना करना भी संभव नहीं होता तो मुनि की भूमिका में यह सब कैसे संभव होगा? अतः इस सम्बन्ध में मुनि संघ से कुछ भी अपेक्षा रखना ठीक नहीं है।"
यह सब सोचकर श्रद्धालु श्रावकों का धर्मानुरागवश परेशान होना भी स्वाभाविक ही था, जबकि पूरा संघ एकदम सहजभाव से सबक ज्ञाता दृष्टा रहकर अपने आप में मग्न था, प्रसन्न था। किसी को कोई परेशानी नहीं थी, बल्कि उनके लिए तो उन उपसर्ग को शान्ति से सहना और सहर्ष परिषहजय करना कर्मों की निर्जरा के कारण बन रहे थे।
वस्तुतः जिनके क्रोधादि चतुष्टय की तीन चौकड़ी का अभाव हो गया है, भेदज्ञान के अभ्यास से देह और आत्मा में भिन्नता का भाव प्रगट हो गया है। देह में एकत्व-ममत्व नहीं रहा, उनके लिए ये उपर्युक्त बाधायें कोई बाधायें ही नहीं लगतीं। वे इनके निरोध का न कोई उपाय स्वयं करते हैं, न किसी से कराते हैं तथा न करते हुए की अनुमोदना ही करते। एकदम प्राकृतिक जीवन जीते हैं, निर्दोष मूलगुणों व उत्तरगुणों का पालन करते हैं।
श्रावकों ने भक्तिवश मुनि संघ के आचार्यश्री से प्रार्थना की कि यदि आपकी अनुमति हो तो हम इन बाधाओं को दूर करने का कोई प्राकृतिक/ अप्राकृतिक अहिंसक उपाय करें; परन्तु आचार्यश्री ने एकदम दृढ़ता से उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। श्रावकगण सन्तों की साधना, आराधना और तपस्या से अभिभूत थे।
प्रातः बाईसपरिषहों के स्वरूप पर ही आचार्यजी का प्रवचन प्रारंभ हुआ। उन्होंने कहा – “परीषहों को जीतना और उपसर्गों को सहना तो मुनियों के कर्मनिर्जरा का कारण है। इन बाधाओं को दूर करने की जरूरत नहीं है।
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बाईस परीषहजय
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यद्यपि मुनि जीवन का साधनामार्ग अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति से सम्पन्न होने से अत्यन्त आनन्दमय है, तथापि मुनि जीवन में शरीर सम्बन्धी विघ्न-बाधाओं का आ जाना असम्भव नहीं है; परन्तु धन्य हैं उन सन्तों का जीवन जो आत्मिक विकास की यात्रा पर गतिशील रहकर, उन समस्त स्थितियों को तत्त्वज्ञान के सहारे समभावपूर्वक सहन करते हैं। जैसे खेल में विजय प्राप्त करने पर खिलाड़ी को जीत की खुशी में छोटीमोटी चोट की परवा ही नहीं होती, उसीप्रकार मुनि विघ्न-बाधाओं की परवाह नहीं करते । उपसर्गों की आँधी साधुओं की स्वरूपसाधनारूप ज्योति को नहीं बुझा पाती ।
मुनि - जीवन में द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा विघ्न-बाधाएँ अथवा प्रतिकूलताएँ सदा एक सी नहीं होतीं, वे विविधरूपा होती हैं। उन विविध परिस्थितियों को समभावपूर्वक सह लेना, उन पर विजय प्राप्त कर लेना परीषह जय कहा जाता है।
इस सन्दर्भ में निम्न आगम के कथन उल्लेखनीय हैं - "मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ।।
मार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए क्षुधातृषा आदि वेदना को सहजता से सह लेना परीषहजय है। १"
"क्षुधादिवेदनोत्पत्तौ कर्मनिर्जरार्थं सहनं परीषहः ।
क्षुधादि वेदना के होने पर कर्मों की निर्जरा करने के लिए उसे सहजता से सह लेना परीषहजय है। "
"दुःखोपनिपाते संक्लेशरहितता परीषहजयः ।
दुःख आने पर भी संक्लेश परिणाम न होना ही परीषहजय है। " “अत्यन्त भयानक भूख आदि की वेदना को जो ज्ञानी मुनि शान्तभाव
से सहन करते हैं, उसे परीषहजय कहते हैं। "
“क्षुधादि वेदनाओं के तीव्र उदय होने पर भी समतारूप परम सामायिक