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________________ चलते फिरते सिद्धों से गुरु " तप के प्रकरण में तो नियतकाल के लिए सर्वत्याग किया जाता है और त्याग में अनियतकाल के लिए यथाशक्ति त्याग किया जाता है। २३" उत्तम आकिंचन्य :- कुछ भी परद्रव्य मेरा नहीं है - ऐसे अकिंचनपने के भाव को आकिंचन्य कहते हैं। जो मुनि राग-द्वेष उत्पन्न करनेवाले उपकरणों को छोड़ता है। ममत्व उत्पादक वसतिका आदि को छोड़ता है, उस मुनि के आकिंचन धर्म होता है। २४ उत्तम ब्रह्मचर्य :- “मोक्षमार्ग में ब्रह्मचर्य को अन्तिम सीढ़ी माना गया है, क्योंकि ब्रह्म अर्थात् आत्मा में रमणता करना ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है। 'ब्रह्म' शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है। जिस मुनि का मन अपने शरीर के सम्बन्ध में भी निर्ममत्व हो चुका है, उसी के ब्रह्मचर्य होता है। ९८ “जीव ब्रह्म है, जीव ही में जो मुनि की चर्या होती है, उसको परदेह की सेवा रहित ब्रह्मचर्य जानो । २५१ जो मुनि स्त्रियों की संगति नहीं करते उनके रूप को नहीं देखते, काम की कथा आदि व उनके स्मरणादिक से रहित हो, उसके नवकोटि से ब्रह्मचर्य होता है। इसप्रकार धर्म के दस लक्षणों को संक्षेप में कहा। १. चोबती: अरिस्ता ये जानने को टालिए "धर्मले बदाम १३ पुस्तक मूल पृष्ठ २२१ ४. पद्मनन्दि पंचविंशतिका ६/५१ ५. बारस अणुवेक्खा, गाथा- ७१ ७. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा - ३९६ ९. बारस अणुवेक्खा, गाथा- ७५ ६. बारस अणुवेक्खा गाथा- ७२ ८. सर्वार्थसिद्धि ९-६-४१२/६ ११. धवला पुस्तक १, खण्ड-१, भाग-१, सूत्र ४, पृष्ठ- १४४ १३. भ. आ. गाथा- १८४५, १८४७ १५. नियमसार, तात्पर्यवृत्ति, गाथा १२३ १७. नियमसार गाथा ५५ की टीका १९. प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा - ७९ २१. बारस अणुवेक्खा, गाथा - ७८ २३. राजवार्तिक ९/६ २५. भगवती आराधना, गाथा ८७८ १०. सर्वार्थसिद्धि ९/६/४१२/६ १२. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा - ३९९ १४. बारसाणुवेक्खा, गाथा- ७७ १६. प्रवचनसार गाथा १४ की टीका १८. नियमसार टीका गाथा ११८ २०. प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति, गा. २३९ २२. समयसार भाषा टीका, गाथा- ३४ २४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४०१ २६. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत 50 १० भादों के महीने में काले बादलों की घनघोर घटाओं से दिन में भी अंधकार हो जाता है, दिल दहलाने वाली बादलों की गड़गड़ाहट, आकाश में बिजली की चमकन, मूसलाधार पानी की वर्षा, अनावश्यक घासफूस, चारों ओर पानी ही पानी । यद्यपि वर्षाऋतु में ये सब अजूबा नहीं हैं; परन्तु इनके कारण मच्छर-मक्खियों का प्रकोप, कीट, पतंगों की भरमार, बिलों में पानी भर जाने से साँप, बिच्छू जैसे जहरीले जीवों का बिलों के बाहर निकल पड़ना और भयाक्रांत होकर जान बचाने के लिए इधर-उधर भागते हुए मनुष्यों के द्वारा जाने / अनजाने बाधा पहुँचाये जाने पर उन्हें डंक मार देना आदि आये दिन की घटनायें हैं। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में हम गृहस्थ लोग तो उनसे बचाव के कुछ न कुछ उपाय कर ही लेते हैं; पर यह सर्वसंग ही त्यागी नग्न दिगम्बर मुनि संघ क्या करे? यह विकट समस्या थी चातुर्मास कमेटी के सदस्यों की। उनको क्या पता कि मुनिराज तो अपने अतीन्द्रिय आनन्द में ऐसे मग्न रहते हैं कि उस आनन्द के सामने ये छुट-पुट बाधायें उन्हें बाधायें सी ही नहीं लगतीं। ज्ञानी श्रावक सोचते हैं- "यह सच है कि मच्छर काटते हैं, आये दिन साँप बिच्छुओं के उपसर्ग भी होते हैं, तेज पानी के समय आवारा पशु भी वसतिका आदि में आकर बाधा पहुँचाते हैं, परन्तु वे उन्हें परीषह और उपसर्ग जानकर उन बाधाओं को तत्त्वज्ञान तथा आत्मा के आश्रय से शान्ति से सहते हैं तथा उन पर विजय प्राप्त कर प्रसन्न रहते हैं। सार्वजनिक उपयोग के लिए बनी वसतिकाओं में किवाड़ भी तो नहीं होते । आगम भी किवाड़ लगाने की आज्ञा नहीं देता; क्योंकि साधकों के लिए बने आवासों पर किसी का एकाधिकार नहीं होता । अन्यथा वे
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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