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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
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ईमानदारी या सत्यता ही सत्यधर्म है। जो मुनि जिनसूत्र ही के वचन को कहे । उसमें जो आचार आदि कहा गया है, उसका पालन करने में असमर्थ हो तो भी अन्यथा नहीं कहे और जो व्यवहार से भी अलीक अर्थात् असत्य नहीं कहे, वह मुनि सत्यवादी है, उसको उत्तम सत्यधर्म होता है।
उत्तमसंयम :- "संयमन को संयम कहते हैं; संयमन अर्थात् उपयोग को पर - पदार्थ से समेटकर आत्मसन्मुख करना, अपने में सीमित करना, उपयोग की स्वसन्मुखता, स्वलीनता ही निश्चयसंयम है। अथवा पाँच व्रतों का धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, क्रोधादि कषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय की प्रवृत्तिरूप तीनों दण्डों का त्याग करना और पाँच इन्द्रियों के विषयों को जीतना संयम है। ११"
"जो मुनि जीवों की रक्षा में तत्पर हुआ, गमन-आगमन आदि सब कार्यों में तृण का छेदमात्र भी नहीं चाहता है, नहीं करता है; उस मुनि के संयमधर्म होता है। १२”
उत्तमतप:- तप की आवश्यकता बताते हुए कहा है कि- “जैसे अग्नि तृणराशि को जलाकर खाक कर देती है, उसी प्रकार तपरूपी अग्नि कर्मरूपी तृणों के ढेर को जलाकर राख कर देती है। जैसे सुवर्ण - पाषाण को अग्नि से तपाने पर, उसमें से सोना अलग हो जाता है, उसी प्रकार तपरूपी अग्नि से तपाने पर कर्म से घिरा हुआ जीव शुद्ध हो जाता है । १३” "पंचेन्द्रिय विषय और क्रोधादि चार कषायों का निग्रह करके ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मचिन्तन करना तप है। १४"
"जो आत्मा को आत्मा में आत्मा से धारण कर रखता है, टिकाये रखता है, जोड़े रखता है, वह अध्यात्म है और वस्तुतः ऐसा अध्यात्म ही तप है। १५"
जो मुनि इसलोक-परलोक के सुख की अपेक्षा से रहित होता हुआ सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, तृण- कंचन, निन्दा - प्रशंसा आदि में राग-द्वेष रहित समभावी होता हुआ अनेक प्रकार से कायक्लेश करता है, उस मुनि
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धर्म के दस लक्षण
निर्मल तपधर्म होता है। समस्तरागादिपरभावेच्छात्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः । " समस्त रागादि परभावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्व-स्वरूप में प्रतपन करना, विजयन करना तप है। तात्पर्य यह है कि समस्त रागादि भावों के त्यागपूर्वक आत्मस्वरूप में अपने में लीन होना अर्थात् आत्म लीनता द्वारा विकारों पर विजय प्राप्त करना तप है । १६"
“सहज निश्चयनयात्मक परमस्वभावरूप परमात्मा में प्रतपन करना, दृढ़ता से तन्मय होना सो तप है। १७"
“शुद्ध कारणपरमात्मतत्त्व में सदा अन्तर्मुखरूप से प्रतपन ( लीनता) तप है। १८
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" समस्त रागादि परभावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्वस्वरूप में प्रतपन करना, विकारों पर विजय प्राप्त करना तप है। १९"
इसप्रकार हम देखते हैं कि नास्ति से इच्छाओं का अभाव और अस्ति से आत्मस्वरूप में लीनता ही तप है।
यद्यपि तप आत्मशोधन एवं कर्मक्षय की एक अखण्ड प्रक्रिया है; तथापि विधि और प्रक्रिया के आधार पर तप का विभाजन दो प्रकार से किया गया है - (१) बाह्य तप और (२) अभ्यन्तर तप । इनमें भी दोनों के छह-छह भेद होते हैं। इनकी चर्चा १२ तप के रूप में प्रथक् से की गई
हैं ।
उत्तमत्याग :- “निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह की निवृत्ति त्याग है। २०१
“जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है कि जो जीव समस्त परद्रव्यों से मोह छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीनरूप परिणाम रखता है; उसके त्यागधर्म होता है। २१११
" परभाव को पर जानना, फिर परभाव का ग्रहण न करना त्याग है। २२"