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चलते फिरते सिद्धों से गुरु तैसे सम्भव होय हैं अर मुनिनि के प्रधानपने होय हैं।"
“यद्यपि जिनागम में दसलक्षण धर्म का वर्णन मुख्य रूप से मुनिराजों की मुख्यता से ही आया है, तथापि देशविरत श्रावक एवं अविरत सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा को भी उनकी भूमिकानुसार ये होते हैं। उनके उत्तमक्षमा आदि में कषाय के घटने के अनुसार मात्रा में भेद होता है, जाति सबकी एक जैसी होती है।” उत्तमक्षमा आदि दस धर्म
"उत्तम क्षमा है आदि में जिसके तथा जो दस भेदों से युक्त हैं, उस धर्म का पालन श्रावक भी अपनी शक्ति के अनुसार करते हैं।"
अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण क्रोध के अभाव में उत्तम क्षमा वृद्धिंगत होती जाती है तथा संज्वलन कषाय के अभाव में आत्मा में ही अनन्तकाल तक समा जानेवाले अरहन्त परमात्मा को उत्तम क्षमा की पूर्णता होती है। उत्तमक्षमा आदि दसों धर्मों का संक्षिप्त स्वरूप इसप्रकार है
१. उत्तमक्षमा :- मुनिराज को अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान - इन तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप प्रगट वीतराग परिणति निश्चय उत्तमक्षमा है और बाह्य में क्रोध के कारणभूत निन्दा, गाली आदि के प्रसंगों में भी क्रोधित न होना व्यवहार उत्तमक्षमा है।
दुष्टों द्वारा बिना कारण वध करने पर भी 'मेरे अमूर्त परमब्रह्मरूप आत्मा की हानि नहीं होती' - ऐसा समझकर परमसमरसी भाव में स्थित रहना निश्चय उत्तमक्षमा धर्म है। तथा क्रोध के उत्पन्न होने के साक्षात् बाहरी कारण मिलने पर भी जो थोड़ा भी क्रोध नहीं करता है, उसके (व्यवहार) उत्तम क्षमाधर्म होता है।"
यद्यपि द्रव्यलिंगी मंद कषायी मुनि बाह्य परिस्थिति में एकदम शान्त दिखलायी पड़ते हैं; तथापि उनकी शान्ति का आधार भगवान आत्मा के
आश्रय से उत्पन्न क्षमाभावरूप वीतरागी परिणति नहीं है; अपितु वे यह विचारते हैं कि “मैं साधु हुआ हूँ, अतः मुझे शान्त ही रहना चाहिए;
धर्म के दस लक्षण शान्त नहीं रहँगा तो लोग क्या कहेंगे? इस भव में तो बदनामी होगी ही; पापबन्ध होने से परभव भी बिगड़ जाएगा। और यदि अभी शान्त रहूँगा तो प्रशंसा तो होगी ही, पुण्यबंध होने से आगे भी सुख-शान्ति प्राप्त ही होगी। शास्त्रों में भी मुनिराजों को क्रोध नहीं करने की आज्ञा है।"
इसप्रकार चिन्तवन से वे बाह्य में शान्त दिखते हैं; परन्तु उनके मिथ्यात्वपूर्वक अनन्तानुबन्धी आदि चारों प्रकार का क्रोध विद्यमान होने से उत्तमक्षमा सम्भव नहीं है।
२. उत्तममार्दव :- मृदुता अर्थात् कोमलता का भाव मार्दव है। सामान्यतया मान कषाय के अभाव को मार्दव कहते हैं। विशेषरूप से जाति आदि आठ प्रकार के मद के आवेश से होनेवाले अभिमान अथवा "मैं परद्रव्य का कुछ भी कर सकता हूँ" - ऐसी मान्यतारूप अहंकारभाव को जड़मूल से उखाड़ देना उत्तम मार्दवधर्म है। ___ "जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, शास्त्र और शीलादि के विषय में थोड़ा भी घमण्ड नहीं करता है, उसके मार्दवधर्म होता है।"
३. उत्तमआर्जव :- “ऋजुता अर्थात् सरलता का भाव आर्जव है। सामान्यतया माया कषाय के अभाव को आर्जव कहते हैं। विशेषरूप से जो मुनि मन में कुटिल चिन्तवन नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता, कुटिल वचन नहीं बोलता और अपने दोषों को नहीं छिपाता, वह उत्तम आर्जवधर्म का धारी है।", "योगों का वक्र न होना आर्जव है।"
४. उत्तमशौच :- शुचिता का भाव शौच है। सामान्यतया लोभ कषाय के अभाव का नाम शौच है। विशेषरूप से सभी प्रकार के विकारों की अपवित्रता से आत्मा को दूर रखना उत्तम शौच धर्म है। ___ “जो परम मुनि इच्छाओं को रोककर और वैराग्यरूप विचारों से युक्त होकर आचरण करता है, उसको शौचधर्म होता है।"
“प्रकर्ष प्राप्त लोभ का त्याग करना शौचधर्म है।१०" ५. उत्तमसत्य :- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ प्रगट होनेवाली
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