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चलते फिरते सिद्धों से गुरु रक्षा करना योग्य नहीं है; क्योंकि उत्तरगुणों में दृढ़ता इन्हीं मूलगुणों के निमित्त से ही प्राप्त होती है। जिसप्रकार मूलरहित वृक्ष किसी प्रकार फल उत्पन्न नहीं कर सकता; उसीप्रकार मूलगुण से रहित समस्त उत्तरगुण कभी फलदायी नहीं हो सकते।
जो उत्तरगुणों को प्राप्त करने के लिए मूलगुणों को गौण कर देते हैं, वे अपने हाथ की अंगुलियों की रक्षा के लिए मानो अपना शिरच्छेद ही करा लेते हैं।" जो मूलगुणों को छोड़कर या उपेक्षा करके अपने मान-सम्मान या प्रशंसा पाने के लिए उत्तर गुणों का कठोरता से पालन करते हैं, वे ठीक नहीं हैं।
जिस तरह मूलगुणों की संख्या निश्चित है, उसतरह उत्तरगुणों की कोई सुनिश्चित संख्या नहीं है। मूलगुणों के अतिरिक्त सभी व्रत-शीलादि उत्तरगुण में समाहित हैं। वैसे आगम के उत्तरगुणों की उत्कृष्ट संख्या चौरासी लाख तक मानी गयी है। परन्तु चौरासी लाख तो क्या चौरासी नाम याद रखना असंभव लगता है, फिर भी चिंता की कोई बात नहीं है; क्योंकि उन सब नामों को याद रखना आवश्यक भी नहीं है। मुनि की भूमिका के योग्य कषायों का अभाव होने से वे सभी उत्तरगुण सहज प्रगट हो जाते हैं। वैसे तो उत्तम क्षमा, बारह भावनाओं में वर्णित वैराग्य व ज्ञान, बाईस परीषहजय की योग्यता, बारह तप आदि के भाव भी प्रगट हो जाते हैं; परन्तु स्वरूप में विशेष सावधानी के लिए तथा परिणामों में विशेष विशुद्धि के लिए इनकी आराधना एवं अनुप्रेक्षा करना अपेक्षित है।
ये धर्म के दसलक्षण चारित्रगुण की एक समय की निर्मल पर्याय के ही दस नाम हैं, जो चारित्रगुण की क्रोधादि दस विकारी पर्यायों का अभाव करके प्रगट हुए हैं। आत्मा में अनादि काल से चारित्रगुण की विकृतियाँ
और कुशील (अब्रह्म) आदि होते रहे हैं, तत्त्वज्ञान के अभ्यास से इनके अभाव होने पर साधुओं के चारित्रगुण में जो निर्मलता प्रगट हो जाती है उसे ही उत्तम क्षमादि दसधर्म कहते हैं।
धर्म के दस लक्षण
जैसे कृष्ण एक है परन्तु निमित्त अपेक्षाओं से उनके नाम अनेक हैं, गोपाल, गोपीबल्लभ, राधाबल्लभ, देवकीनन्दन, घनश्याम, कंसारि, मुरारी आदि; उसीप्रकार चारित्रगुण की एक निर्मलपर्याय है, किन्तु क्रोध, मान आदि दस विकृतियों के अभाव के कारण उस एक ही निर्मल पर्याय के ये दस नाम हैं। ___यद्यपि ये दस धर्म मुख्यतः मुनियों के उत्तर गुण हैं, तथापि गृहस्थ भी इनकी आराधना करते हैं। इतना ही नहीं, ये दसधर्म सार्वजनिक हैं, सर्वकालिक एवं सार्वदेशिक भी हैं; क्योंकि क्रोधादि विकारों को सभी जन बुरा मानते हैं, सभी कालों में अर्थात् भूत में, भविष्य में और वर्तमान में इन्हें अहित कर, दुःखद माना जाता है तथा सभी देशों में ये विकार अच्छे नहीं माने जाते। अतः मानव मात्र किसी न किसी रूप में इन दस धर्मों की आराधना एवं अंगीकार करने में तत्पर रहते हैं।
वैसे तो इनकी आराधना/साधना करने की कोई तिथि विशेष नहीं होती, ये तो सदैव जीवन में अपनाने के सिद्धान्त हैं, फिर भी सम्पूर्ण जैन समाज इन्हें मुख्यतः भादों के महीने में एक महान उत्सव के रूप में दस दिवसीय आयोजन करती है। ये तो प्रसंशनीय है, परन्तु अफसोस यह है कि यह पर्व परम्परागत रूढ़ि बनकर रह गया है। इस कारण इसकी आराधना में बहुत भूलें होने लगी हैं। उस सन्दर्भ में पण्डित टोडरमलजी लिखते
“बन्धादिक के भय से तथा स्वर्ग-मोक्ष की इच्छा से क्रोधादि नहीं करता, परन्तु वहाँ क्रोधादि करने का अभिप्राय तो मिटा नहीं है। जैसे - कोई राजादिक के भय से अथवा महन्तपने के लोभ से परस्त्री का सेवन नहीं करता तो उसे त्यागी नहीं कहते। वैसे ही यह क्रोधादिक का त्यागी नहीं है। वास्तव में जब पदार्थ अनिष्ट-इष्ट भासित होते हैं तब क्रोधादिक उत्पन्न होते हैं; तथा जब तत्त्वज्ञान के अभ्यास से कोई इष्ट-अनिष्ट भासित न हों, तब स्वयमेव ही क्रोधादि उत्पन्न नहीं होते; तब सच्चा क्षमा धर्म होता है।
ये धर्म अविरत सम्यग्दृष्टि आदि के जैसे क्रोधादिक की निवृत्ति होय,
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