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चलते फिरते सिद्धों से गुरु इसके भी छह भेद हैं - १. प्रायश्चित २. विनय, ३. वैयाव्रत, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग एवं ६. ध्यान।
(५) वीर्याचार :- दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार और तपाचार को टिकाये रखने के लिए अन्तरंग में अपने वीर्य/बल को स्फूरित करना निश्चय वीर्याचार है।
श्री प्रवचनसार के चरणानुयोग के अधिकार में कहा है कि -"जबतक व्यवहार के प्रसाद से निश्चय को प्राप्त नहीं करूँ तब तक व्यवहार का पालन करूँगा।" वहाँ ज्ञानाचार दर्शनाचार को लक्ष्य करके कहते हैं कि 'मैं जानता हूँ, कि हे ज्ञानाचार! हे तपाचार! तू मेरा स्वरूप नहीं है, परन्तु स्वरूप में स्थिर नहीं रह सकूँ, तब तक तुम्हारा आश्रय है तुम्हारे निमित्त से ही मैं निश्चय धर्म प्राप्त करूँगा।
प्रवचनसार के इस व्यवहार कथन का आशय यह है कि - निमित्त है, व्यवहार है; परन्तु जब यह शुभराग भी स्वभाव की रक्षा नहीं करता, तो फिर शारीरिक संहनन, गुरु अथवा अन्य बाह्य वस्तु रूप निमित्त स्वभाव की रक्षा कैसे करें? इसप्रकार निश्चय व्यवहार पंचाचार का स्वरूप है। बस, अभी इतना ही।
ॐ नमः।
यद्यपि संघस्थ आचार्य एवं उपाध्याय सामान्य जनता की सुविधा के अनुसार प्रवचन देने के लिए प्रतिबंधित नहीं होते, तथापि भव्य जीवों के भाग्योदय से प्रायः प्रतिदिन प्रातः ९ से १० बजे तक १ घंटे के प्रवचनों का लाभ समाज को मिल रहा था।
करुणासागर आचार्यश्री ने समाज की रुचि को देखकर प्रवचन शृंखला बराबर चालू रखी। मुनियों के मूलगुणों के विवेचन के माध्यम से श्रावकों को तो उनके आवश्यक कर्तव्यों का ज्ञान हो ही रहा था, संघस्थ साधु भी ऐसा महसूस कर रहे थे कि यदि समय-समय मुनिचर्या पर ऐसे प्रवचन होते रहें तो साधु समाज भी अपने आवश्यक कर्तव्यों में शिथिल नहीं हो पायेगा, अन्यथा शिथिलता आ जाना असंभव नहीं है।
संघस्थ साधुओं के प्रवचनों के प्रति अनुकूल प्रतिक्रिया देखकर भी आचार्यश्री ने प्रवचन शृंखला आगे बढ़ाते हुए आज से मुनिराज के उत्तरगुणों की विस्तार से चर्चा करने का मन बना लिया। ___ आचार्यश्री ने तत्त्वोपदेश प्रारंभ करते हुए कहा - मुनिराज के उत्तरगुणों में धर्म के दसलक्षण, बारह भावनायें, बाईस परीषह, संयम, सामायिक एवं स्वाध्याय आदि अन्तरंग तप तथा अनशन, उनोदर आदि बाह्य तप - ये साधु परमेष्ठी के प्रमुख उत्तरगुण हैं।” जिनकी आराधना/साधना साधु सदा किया करते हैं।
इनके माध्यम से ही मुनिराज आध्यात्मिक विकास की शक्ति प्राप्त करते हैं। तथा शुद्धि की वृद्धि करते हुए सम्पूर्ण विकारों का क्षय करके पूर्ण अविकारी मुक्तदशा को प्राप्त करते हैं। ___ यद्यपि मुनि-जीवन में आत्मिक उत्कर्ष की दृष्टि से उत्तरगुणों का बहुत भारी महत्त्व है; परन्तु मूलगुणों की उपेक्षा करके मात्र उत्तरगुणों की
१. मूलाचार ५/२ २. मूलाचार प्रदीप, गाथा १६१९-१६२० ३. दर्शनपाहुड़, गाथा-२ ४. दर्शनपाहुड़, गाथा-४ ५. दर्शनपाहुड़, गाथा-५) ६. दर्शनपाहुड़, गाथा-६ ७. मूलाचार प्रदीप, गाथा १५९५-१७०८ ८. अष्टपाहुड़, मोक्षपाहुड़, गाथा ८१ ९. अष्टपाहुड़, मोक्षपाहुड़, गाथा ८८ १०. मूलाचार प्रदीप, १६०१-१६१३ ११. छहढाला, ३/१६ १२. रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ४ १३. तत्वार्थसूत्र अध्याय-१, सूत्र २ १४. मोक्षमार्ग प्रकाशक, अध्याय-९, पृष्ठ ३२८, ३२९ को भी देखें। १५. आचार्य अमृतचन्द्र, १९३१
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