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आचार्य के पंचाचार
चलते फिरते सिद्धों से गुरु देव शास्त्र-गुरु को जानकर अपने स्वरूप को जानने/पहचानने को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। अतः सम्यग्दर्शन के लिए सर्वज्ञ को जानना अनिवार्य है और यह बिल्कुल कठिन नहीं है। अत्यन्त सरल है; क्योंकि अभी सर्वप्रकार के साधन सुलभ हो गये हैं। इनका बार-बार मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। यदि इस भव में आत्मानुभव नहीं हुआ तो फिर कभी होने की संभावना नहीं है। अतः सब कार्यों को गौण करके सर्वप्रथम सर्वज्ञ को जानकर उनकी श्रद्धा करें। भेदज्ञान अर्थात् निजपर की पहचान करें, क्योंकि पर ही मोक्ष का साधन है। समयसार कलश में कहा भी है -
भेद विज्ञानतः सिद्धाः सिद्धाः ये किलकेचन ।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।।१५ तात्पर्य यह है कि जबतक भेदविज्ञान नहीं होता तब तक जीव कर्मों से बंधता ही रहता है।
'मूलतः संसार में भटकने की चार भूलें हैं - पर में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व । जब तक ये भूलें नहीं निकलतीं तबतक कठोर से कठोर बाह्य धर्म की साधना करो; परन्तु वह साधना कर्म बंधन से मुक्त नहीं करा सकती। यह जानकर जैसे बने तैसे सर्वप्रथम ये भूलें मिटानी होंगी। एकत्व एवं ममत्व मिटाने के लिए वस्तु स्वातंत्र्य का सिद्धान्त समझना होगा। भोक्तृत्व भाव का अभाव करने हेतु यह जानना होगा कि पर में सुख है ही नहीं तो मिलेगा कहाँ से?
बस, दर्शनाचार के संदर्भ में जो सम्यग्दर्शन की चर्चा की। इतना भी जान लिया तो सम्पूर्ण जिनवाणी का रहस्य जानने में आ जायेगा।
पंचाचार के विषय को आगे बढ़ाते हुए संक्षेप में ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार की चर्चा भी आचार्य श्री ने की। जो इस प्रकार है।
(२) ज्ञानाचार - शुद्धात्मा आधि, व्याधि एवं उपाधिरहित है। अपनी ज्ञान पर्याय द्वारा स्व को ज्ञेय बनाना तथा भेदज्ञान द्वारा राग-द्वेष से
आत्मा को भिन्न जानना निश्चयसम्यग्ज्ञान है एवं व्यवहार से आगमज्ञान सम्यग्ज्ञान है। आत्मा का स्वसंवेदन ज्ञान निश्चय है। अपने निज ज्ञायकस्वभाव का निर्णय करते ही शरीर, कर्म, राग इत्यादि कोई भी मुझमें नहीं है - ऐसा नास्तिरूप परिणमन सहज ही हो जाता है। मैं अपने से हूँ - ऐसा अभेदरूप परिणमन होते ही पर से नास्तिरूप परिणमन होता है। सम्यक्दृष्टि को शास्त्रों का ज्ञान भी शुद्धात्मा के लक्ष्यपूर्वक ही होता है। वास्तव में तो अपने ज्ञायकस्वभाव का स्वसंवेदनरूप परिणमन निश्चय ज्ञानाचार है।
(३) चारित्राचार :- आत्म द्रव्य के आश्रय से ज्ञायकस्वरूपी आत्मा में ही स्थिर होना निश्चय चारित्र है। आत्मा के आश्रय से जो आत्मा में स्थिरता पूर्वक अतीन्द्रिय आनन्द के आस्वाद के समय स्वरूप में स्थिरता का होना ही चारित्राचार है।
(४) तपाचार :- परद्रव्यों की इच्छा रोकना व्यवहार से तपाचार है। स्वाभाविक आनन्द के झरने में मस्त आचार्यों को परद्रव्य की इच्छा होती ही नहीं है - इसी का नाम इच्छा का रोकना है। पहले इच्छा के समय पर परद्रव्य निमित्त थे, अब स्वभाव में लीन होने से इच्छा टूटते ही परद्रव्य छूट जाते हैं। आहार आदि की ओर वृत्ति ही नहीं गई; अतः अनशन, अवमौदर्य, रस परित्याग, विविक्त शैय्यासन एवं कायक्लेश ये छह बाह्य तप सहज ही पल गये। इन्हें बहिरंग तप कहा है, जिसकी ओर लक्ष था, जब उसका लक्ष छूट गया, तब उसकी अपेक्षा से तथा ये बाहर से दिखाई देते हैं, अतः इन्हें बहिरंग सहकारी कारण कहा है। ____ अनादि से इच्छा बलवान थी, अब उसकी शक्ति समाप्त हो गई और शुद्ध अनाकुल आत्मा की विजय हुई और इच्छारहित साम्राज्य हो गया।
आत्मा इच्छारहित तप से शोभायमान हो गया। यह इच्छारहित तप ही निश्चय तप है और इसमें विशेषरूप से प्रतपन निश्चय तपाचार है।
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