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चलते फिरते सिद्धों से गुरु हैं। इससे उन्हें आनन्द उपजता है और हृदय गद्गद् होता है।
कभी तो जगत के जीवों को उनकी जगत से उदासीन गंभीर मुद्रा दिखाई देती है और कभी मानो उन्होंने निधि प्राप्त की हो - ऐसे हंसमुख मुद्रा प्रतिभासित होती है। मुनिराज की ये दोनों दशाएं अत्यन्त सहज होती हैं। ___मुनि को पर के सुख-दुःख मानने का अभाव होता है। आकुलतापूर्वक पर को जानने नहीं जाते, किन्तु जो परद्रव्य उनके ज्ञान में सहज ज्ञात होते हैं, उन्हें वे जानते हैं; परन्तु उनमें ममत्व नहीं करते और न इष्ट-अनिष्टपना मानकर राग-द्वेष करते हैं।
शरीर की अनेक अवस्थाएँ होती हैं, रोगादि होते हैं और अनेकप्रकार के बाह्य सुख-दुःख के निमित्त आते हैं, किन्तु वे उनमें किंचित् भी सुखदुःख नहीं मानते - ऐसी मुनि की बाह्य दशा होती है। ___ इन्द्र आकर पूजा करें या सिंह-चीते आकर शरीर को फाड़ खायें, उसमें मुनि सुख-दुःख नहीं मानते । यद्यपि सम्यक्त्वी भी पर से सुखदु:ख नहीं मानते, किन्तु मुनि को तो स्वरूप की स्थिरता विशेष होने से अधिक वीतरागता हो गयी है, इसलिए उन्हें हर्ष-शोक भी नहीं होता। मुनि बाह्य क्रिया खींच-तानकर नहीं करते
अपनी मुनिदशा के योग्य बाह्य क्रिया जैसी होती है, वैसी होती है, किन्तु उसे खींच-तानकर नहीं करते। उदासीनरूप से सहज ही बाह्य क्रिया होती है। इतने समय में मुझे अमुक स्थान तक विहार करना ही पड़ेगा, अमुक प्रसंग पर मुझे बोलना ही पड़ेगा - ऐसी बाह्य क्रिया की बाध्यता मुनि के नहीं होती। यहाँ जो मुनिदशा के योग्य हो - ऐसी बाह्य क्रिया की ही बात है; जो मुनिदशा में योग्य न हो - ऐसी बाह्य क्रियाएँ मनि के होती ही नहीं हैं।
मुनि अपने उपयोग को बहुत भटकाते नहीं हैं, किन्तु उदासीन होकर निश्चल वृत्ति को धारण करते हैं। तीन कषायों का नाश होने से वीतरागी स्थिरता प्रगट हुई है, इसलिए वे उपयोग लौकिक बातों में नहीं भ्रमाते । लौकिक पुस्तकें आदि नहीं पढते । जहाँ-तहाँ उपयोग को नहीं ले जाते। यद्यपि अभी स्वरूप में उपयोग पूर्णतया स्थिर नहीं हुआ है, इसलिए बाह्य में भी जाता है; किन्तु उसे अधिक नहीं घुमाते; मुख्यतया तो शुद्धोपयोग की ही साधना करते हैं। मुनियों के शुद्धोपयोग की प्रधानता है और
साधु के दस स्थितिकल्प शुभोपयोग गौण है। शुभोपयोग को उपादेय नहीं मानते - यदि करुणाबुद्धि आती है तो मात्र तत्त्वोपदेश ही देते हैं, लौकिक सुख के साधन नहीं बताते । कदाचित् मन्दराग के उदय से शुभोपयोग भी होता है; परन्तु संज्वलन कषाय के तीव्र उदय में छठवाँ गुणस्थान होता है - ऐसा गोम्मटसार में कहा है, वह निमित्त सापेक्ष कथन है; वास्तव में जीव को स्वयं वैसे-वैसे निर्विकल्पदशा आती ही रहती है, इसलिए शुद्धोपयोग का प्रयत्न वर्तता ही रहता है।
पंच महाव्रतादि का विकल्प सदैव बना ही रहे - ऐसा नहीं होता। इसलिए कहा है कि कदाचित् मन्दराग के उदय से शुभोपयोग भी होता है। 'भी' कहकर शुभोपयोग की गौणता बतलायी है। मुख्य उद्यम तो शुद्धोपयोग का ही है। शुभोपयोग के समय मुनि शुद्धोपयोग के बाह्य साधनों में - स्वाध्याय, महाव्रतादि में अनुराग करते हैं; परन्तु उस रागभाव को भी हेय जानकर दूर करने की इच्छा रखते हैं।
देखो, यहाँ शुभोपयोग को शुद्धोपयोग का बाह्य साधन कहा है, किन्तु उसे हेय कहा है अर्थात् शुभ को हेय करके अन्तरस्वभाव के अवलम्बन से शुद्धोपयोग प्रगट करे तो उस शुभ को बाह्य साधन कहा जाता है। शुद्धोपयोग का सच्चा साधन तो अन्तरस्वभाव का अवलम्बन ही है। - यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि मुनि को छठवें गुणस्थान में शुभोपयोग होता है, किन्तु उसके आधार से मुनिपना टिकता नहीं है; मुनिपना तो उस समय भी अन्तरस्वभाव के अवलम्बन से होनेवाली वीतरागता स्थिरता से ही अवस्थित है। मुनिपना संवर-निर्जरारूप है और शुभोपयोग आस्रव है। मुनि उस शुभराग को हेय जानते हैं। ___इसप्रकार आज के उपदेश में मुनिराजों के उत्तरगुणों की चर्चा में निषिद्ध कृतिकर्म, साधुत्रय का स्वरूप, धर्म का मूल सम्यग्दर्शन, समभावी मुनिराज आदि की बात बताईं। अब अगले प्रवचन में मुनि के आहारदान
आशिरमों की पच्चा करेंगे। ॐनमवती आराधना, गाथा ४२१ ३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक १४७ ४. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग-१, पृष्ठ-४१३ ५. तत्त्वार्थसार, अधिकार-९, श्लोक-५
मानतहा
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