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चलते फिरते सिद्धों से गुरु सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही मुनि होते हैं।
परद्रव्य में अहंबुद्धि न होने से परद्रव्य को मुनि जानते तो हैं, किन्तु उसे इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष नहीं करते। अविरत सम्यक्त्वी को भी पर में इष्ट-अनिष्टपने की बुद्धि तो नहीं है, किन्तु उन्हें अभी राग-द्वेष होता है और मुनिदशा में तो वीतरागता प्रगट हो गयी है। अत: वे उनसे ममत्व नहीं करते।
आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने साधुओं का जो सामान्य स्वरूप लिखा है, वह स्तुत्य है। वे लिखते हैं - १. जो विरागी होकर, समस्त परिग्रह छोड़कर, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके, अंतरंग में उस शुद्धोपयोग द्वारा स्वयं अपना अनुभव करते हैं। २. परद्रव्य में अहंबुद्धि नहीं रखते। ३. अपने ज्ञानादिक स्वभावों को ही अपना मानते हैं। ४. परभावों से ममत्व नहीं करते। ५. परद्रव्य तथा उनके स्वभाव ज्ञान में प्रतिभासित होते हैं, उन्हें जानते तो अवश्य हैं; किन्तु इष्ट-अनिष्ट मानकर, उनमें राग-द्वेष नहीं करते । ६. शरीर की अनेक अवस्थाएँ होती हैं, बाह्य में अनेक प्रकार के निमित्त आते हैं, किन्तु वे मुनि वहाँ कुछ भी सुखदुःख नहीं मानते । ७. अपने योग्य बाह्य क्रिया जैसी होती है, वैसी होती है, किन्तु उसे खींच-तानकर नहीं करते। ८. वे अपने उपयोग को बहुत नहीं भ्रमाते, किन्तु उदासीन होकर निश्चल वृत्ति को धारण करते हैं। ९. कदाचित् मन्दराग के उदय से शुभोपयोग होता है, जिसके द्वारा वे शुद्धोपयोग के बाह्य साधनों में अनुराग करते हैं, परन्तु उस रागभाव को भी हेय जानकर दूर करने की इच्छा करते हैं। १०. भोजन के त्याग से शरीर को अधिक क्षीण होता जाने तो ऐसा विचार करते हैं कि यदि यह शरीर क्षीण होगा तो परिणामों को शिथिल करेगा और परिणाम शिथिल होंगे तो ध्यान-अध्ययन नहीं सधेगा। इस शरीर में मुझे कोई बैर तो नहीं है, जो इसको क्षीण ही करूँ मुझे इस शरीर से राग भी नहीं, जो इसका पोषण ही करूँ। इसलिए मुनिराज को शरीर से राग-द्वेष का अभाव होने से जिस कार्य से उनका ध्यान-अध्ययन सधे. वही कार्य करते हैं।
इसप्रकार मुनिराज पवन, गर्मी, कोलाहल एवं मनुष्य आदि के गमन के स्थानों में जानबूझकर नहीं बैठते हैं। वे वहाँ बैठते हैं, जहाँ ध्यान-
साधु के दस स्थितिकल्प अध्ययन से परिणाम च्युत न हों।
हाँ, मुनि के ध्यान में विराजने के पश्चात् यदि कोई उपसर्गादि बाधक कारण प्राप्त हों तो फिर ध्यान को छोड़कर नहीं जाते हैं। शीत ऋतु में नदी के तीर पर ध्यान धारण करते हैं, ग्रीष्म ऋतु में तप्त शिला के ऊपर एवं पर्वत के शिखर पर ध्यान धारण करते हैं। चातुर्मास में वृक्षों के नीचे ध्यान करते हैं, वे अपने परिणामों की विशुद्धता के अनुसार ध्यान करते हैं।
जब तक मुनिराज के परिणाम ध्यान में स्थिर रहते हैं, तब तक तो ध्यान को छोड़कर अन्य कार्य नहीं विचारते हैं। ध्यान से परिणाम नीचे
आयें, तब शास्त्राभ्यास करते हैं एवं दूसरों को कराते हैं तथा अपूर्व जिनवाणी की आज्ञानुसार ग्रन्थ का अवलोकन करते है।
ध्यान में उपयोग की स्थिरता अल्पकाल रहती है और शास्त्राभ्यास में उपयोग की स्थिरता बहत काल रहती है। इसलिए मुनि ध्यान धारण करते हैं, शास्त्र बांचते हैं और उपदेश भी देते हैं। स्वयं भी गुरु से पढ़ते हैं, औरों को पढ़ाते हैं। मूलग्रन्थों के आधार पर नवीन ग्रन्थों को रचते हैं। ऐसे मुनिराज त्रिकाल वंदनीय और स्मरणीय हैं। ___ समभावी मुनिराज - कोई पुरुष, आकर मुनि को गाली देता है एवं उपसर्ग करता है तो उस पर बिलकुल भी क्रोध नहीं करते; अपितु परम दयालु बुद्धि होने से उसका भला ही चाहते हैं।
वे ऐसा विचार करते हैं कि “यह भोला जीव है, इसे अपने हितअहित की खबर नहीं है। यह जीव इन परिणामों से दुःख पायेगा। मेरा तो कुछ बिगाड़ नहीं है; परन्तु यह जीव संसार-समुद्र में डूबेगा । इसीलिए जो कुछ भी हो, इसको समझाना चाहिए" - ऐसा विचार कर भव्य जीवों को हित-मित-प्रिय वचनों से समझाते हैं।
ऐसे दयालु श्रीगुरु के वचन सुनकर वह पुरुष संसार के भय से कम्पायमान होता हुआ, शीघ्र ही गुरु के चरणों में नमस्कार कर, अपने किए अपराध की निन्दा करता हुआ क्षमा याचना करता है तो मुनि उसे क्षमादान करते हुए निर्भय करते हैं।
मुनिराज अपने ज्ञानरस में तृप्त हैं, छक रहे हैं; इसलिए बाहर निकलते ही नहीं हैं। कदाचित् पूर्व की वासना से बाहर निकलते हैं तो उन्हें यह जगत इन्द्रजालवत भासित होता है। अत: तत्क्षण ही स्वरूप में चले जाते
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