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चलते फिरते सिद्धों से गुरु बिल्कुल आवश्यक नहीं है। ये क्रियायें तो मुनि के निमित्त ही होती हैं?
चौथी बात - उद्दिष्ट भोजन के त्यागी तो मुनिराज होते हैं, अत: वे किसी श्रावक से अपने लिए भोजन बनाने को कहेंगे भी नहीं और कोई संकेत भी नहीं देंगे, बल्कि वृत्तिपरिसंख्यान तप के अनुसार अपने मन में कोई कठिन संकल्प लेकर मौन धारण कर सिंहवृत्ति से आहार को निकलेंगे। जहाँ उन्हें नवधा भक्ति पूर्वक आहार मिल जायेगा, निरीहता से छियालीस दोषों को टालकर आहार ग्रहण करते हैं। श्रावक को नवधाभक्ति में यह कहना आवश्यक भी नहीं है कि ये आहार मैंने अपने लिए ही बनाया है, आपके लिए नहीं।' इन सब दृष्टिकोणों से यह विषय विचारणीय है।
मुनियों के लिए निषिद्ध कार्य - शरीर संस्कार न करना - जिन्होंने पुत्र, स्त्री आदि से प्रेम सम्बन्ध छोड़ दिया है और जो अपने शरीर के प्रति भी ममतारहित हैं, ऐसे साधु शरीर के संस्कार नहीं करते जैसे कि - मुख, नेत्र और दांतों का धोना, शोधना, पखारना, उबटन करना, अङ्गमर्दन करवाना, मुट्ठी से शरीर का ताड़न करना, काठ के यंत्र से शरीर का कूटना, पीड़ना, ये सब शरीर के संस्कार हैं।
धूप से शरीर का संस्कार करना, कण्ठशुद्धि के लिए वमन करना, औषध आदि से दस्त लेना, अंजन लगाना, तेल से मर्दन करना, चन्दन, कस्तूरी का लेप करना, सलाई बत्ती आदि से नासिकाकर्म (नेति) तथा मल शोधन हेतु एनिमा (वस्तिकर्म) साधु नहीं करते।
सरागी श्रमण, वीतरागी श्रमण एवं व्यवहारालम्बी श्रमण की पहचान यह है कि जो दोषरहित सम्यग्दर्शन से विशुद्ध तथा मूल व उत्तर गुणों से संयुक्त हैं, जिनका सुख और दःख में समभाव होता है तथा जो आत्मध्यान में लीन रहते हैं, जो अशुभ और शुभ - दोनों ही प्रवृत्तियों के राग से रहित है, वह वीतराग श्रमण हैं एवं जो अशुभ प्रवृत्तियों के राग से तो रहित है, किन्तु व्रत आदि शुभ प्रवृत्तियों के राग से संयुक्त है, वे सराग श्रमण हैं। तथा जो सात तत्त्वों का भेदरूप से श्रद्धान करते हैं, तथा भेदरत्नत्रय की साधना भी करते हैं, पर अभेद अखण्ड एक आत्मद्रव्य का आलम्बन नहीं लेते वे मनि व्यवहारालम्बी है।" साधुत्रय का सामान्य स्वरूप
१. आचार्य परमेष्ठी - जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य -
साधु के दस स्थितिकल्प इन पाँच आचारों का स्वयं आचरण करते हैं और दूसरे साधुओं से आचरण कराते हैं तथा जो चौदह विद्यास्थानों के पारंगत हैं, ग्यारह अंग के धारी हैं अथवा आचारांग मात्र के धारी हैं अथवा तत्कालीन स्वसमय
और परसमय में पारंगत हैं, मेरु के समान निश्चल हैं, पृथ्वी के समान सहनशील हैं, जिन्होंने समद्र के समान मल अर्थात दोषों को बाहर फेंक दिया है और जो सात प्रकार के भय से रहित हैं।
जो प्रवचनरूपी समुद्र में स्नान करने से तथा परमागम के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरुपर्वत के समान निष्कम्प हैं, जो शूरवीर हैं, जो सिंह के समान निर्भीक हैं, जो निर्दोष हैं, देश, कुल
और जाति से शुद्ध हैं, सौम्यमूर्ति हैं, अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित हैं, आकाश के समान निर्लेप हैं, जो संघ को दीक्षा और अनुग्रह करने में कुशल हैं, जो सूत्र अर्थात् परमागम के अर्थ में विशारद हैं, व्रतों की शुद्धि करनेवाली क्रियाओं में निरन्तर उद्युक्त हैं, वे आचार्य परमेष्ठी हैं।
२. उपाध्याय परमेष्ठी - चौदह विद्यास्थान के व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते हैं अथवा तत्कालीन परमागम के व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते हैं। वे संग्रह, अनुग्रह आदि गुणों को छोड़कर पहले कहे गये आचार्य के समस्त गुणों से युक्त होते हैं। जो साध चौदह पूर्वरूपी समुद्र में प्रवेश करके, परमागम का अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित हैं तथा मोक्ष के इच्छुक शीलधरों अर्थात् मुनियों को उपदेश देते हैं, उन मुनीश्वरों को उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं।
३. साधु परमेष्ठी - जो शुद्ध आत्मा के स्वरूप की साधना करते हैं, उन्हें साधु कहते हैं। जो पाँच महाव्रतों को धारण करते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, अठारह हजार शील के भेदों को धारण करते हैं और चौरासी लाख उत्तर गुणों का पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठी होते हैं।
आत्मा के ज्ञानपूर्वक वैराग्य होने से. समस्त परिग्रह छोडकर अन्तर में शुद्धोपयोग द्वारा तीन कषायों का अभाव होने पर मुनिदशा प्रगट होती है। मुनिधर्म शुद्धोपयोगरूप है। उस धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है अर्थात् मुनि होनेवाले को सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तो पहले हो चुके हैं। इसलिए
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