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चलते फिरते सिद्धों से गुरु करना । ८. प्रतिक्रमण अर्थात् नित्य लगनेवाले दोषों का शोधन करना । ९. मासैकवासता अर्थात वर्षा काल को छोडकर छहोंऋतओं में अधिकतम एक मास पर्यन्त ही एक जगह निवास और १०. वर्षाकाल में चार मास पर्यन्त एक स्थान पर निवास करना - ये साधु के दस स्थितिकल्प कहे जाते हैं।'
दस प्रकार के स्थिति कल्प की चर्चा सुनकर एक श्रद्धालु श्रावक बोला “गुरुदेव! और तो सब समझ में आया है, परन्तु उद्दिष्ट भोजन त्याग को थोड़ा और स्पष्ट करें । उद्दिष्ट शब्द का अर्थ लोग अलग-अलग ढंग से करते हैं। इस विषय में मेरा सोचना ऐसा है कि 'श्रावक तो अपनी श्रद्धाभक्ति और उत्साह पूर्वक मुनियों को उनकी प्रकृति और स्वास्थ्य के अनुकूल ऐसा शुद्ध-सात्त्विक आहार देने की भावना रखता है, जिससे मुनिराजों को सामायिक, स्वाध्याय आदि धर्म आराधना में किंचित् भी बाधा या प्रमाद न हो। ऐसी उत्कृष्ट भावना से ही वह सातिशय पुण्यार्जन करता है। पुराणों में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
जैसे - अकम्पनाचार्य आदि ७०० मुनियों के संघ को धुंआ से मनियों का गला खराब होने पर सेवइयों का आहार दिया गया था आदि।
उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा में यद्यपि भैक्ष्यासन करना कहा है, पर उसका अर्थ भिक्षावृत्ति नहीं है। 'भैक्ष्यासन' का भावार्थ प्रथम तो यह है कि - वे किसी के निमंत्रण पर नहीं जाते।
दूसरे, वे अपने आहार के लिए दातार से आरंभ नहीं कराना चाहते। इसकारण आहार के लिए बिना बुलाये ही जाते हैं। जहाँ सहज में अपने योग्य आहार मिलता है तो लेते हैं, अन्यथा उपवास कर लेते हैं। __ अतः श्रावक यह सावधानी बरतें कि जब साधु-संतों की आहार हेतु आने की संभावना हो, उस समय वे अपने लिए भी ऐसा शुद्ध-सात्त्विक आहार बनवायें, जिससे साधुओं के लिए अलग से आरंभ न करना पड़े।
तीसरी बात - यद्यपि पात्र स्वयं कभी किसी से यह नहीं कहते कि 'हमारे लिए अमुक प्रकार का ऐसा आहार बनाओ; फिर भी यदि निर्यापक आचार्य द्वारा या वैयावृत्ति करने वालों द्वारा श्रावक को पात्र की बीमारी का पता लग जाये और पात्र से बिना कुछ कहे आहार दाता उनके लिए भी औषधि आदि एवं तदनुकूल आहार बनाता है तो इसमें किसी को भी
साधु के दस स्थितिकल्प कोई दोष नहीं लगना चाहिए - ऐसा मैं समझता हूँ।
आचार्यश्री ने कहा - "तुम्हारा सोचना सही है। यही सभी शास्त्रों में आये कथनों का अभिप्राय है । परन्तु इतना विशेष है कि यदि श्रावक किसी एक मुनि विशेष के उद्देश्य से ही आहार बनाये और अन्य की उपेक्षा करके मात्र उन्हीं को पड़गाहन करे तथा किसी संकेत से मुनि विशेष को सूचित करे कि अमक मुनि को मेरे घर चौका लगा है तथा तदनुसार मुनि उसी के घर आहार को जायें तो यह उद्दिष्ट आहार का दोष होगा।
इसके विपरीत सम्पूर्ण मुनि संघ के लिए सामान्यरूप से आहार बनाना तथा जो भी मनि द्वार पर आयें, उन्हें नवधा भक्ति से पड़गाहन करना तो श्रावकों का पावन कर्तव्य है। इसमें उद्दिष्ट का दोष नहीं होता है।
दूसरी बात - यह कि बीमार मुनियों को दवायें देने का विधान भी आगम में है। सो वह दवा तो मुनि की बीमारी के अनुरूप ही बनाना होगी! वस्तुतः उद्दिष्ट का यथार्थ अर्थ समझे बिना यह भ्रान्ति नहीं मिटेगी।" वास्तव में उद्दिष्ट' शब्द एक पारिभाषिक शब्द है। इसका शब्दार्थ करना उचित नहीं है।
"आहार के ४६ दोषों में जो अधः कर्म आदि १६ उद्गम दोष हैं, वे सब एक उद्दिष्ट शब्द के द्वारा कहे जाते हैं। आगम में पृथक् से कोई उद्दिष्ट दोष नहीं कहा गया है। उसमें भी दो विकल्प हैं - एक दातार की अपेक्षा उद्दिष्ट और दूसरा पात्र की अपेक्षा उद्दिष्ट ।
दातार यदि दातार के १६ दोषों से युक्त आहार बनाता है तो वह द्रव्य से उद्दिष्ट है और यदि पात्र अपने चित्त में अपने लिए बने आहार का विकल्प करता है अथवा भोजन के उत्पादन संबंधी किसी प्रकार का विकल्प करता है तो वह भाव से उद्दिष्ट आहार है। ऐसा उद्दिष्ट आहार साधु ग्रहण नहीं करते हैं।"
चातुर्मास में सैंकड़ों मुनियों का संघ एक स्थान पर ठहरता है। प्रत्येक श्रावक यह चाहता है कि अधिकतम मुनिराजों का आहार मेरे घर हो, एतदर्थ वे अति उत्साह से चौका लगाते हैं. भोजन के समय दरवाजे पर खड़े-खड़े प्रतीक्षा करते हैं। इससे उन्हें विशेष पुण्यार्जन होता है।
तीसरी बात - पड़गाहन के पहले चूल्हा बझाना, धुंआ न होना आदि क्रियायें श्रावक अपने लिए तो नहीं करता, उसके लिए ऐसा करना
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