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संसारी प्राणियों के दुःखों को देख-देख करुणानिधान आचार्यश्री ने अपने प्रवचन तो नियमित चालू रखे ही, उपाध्याय श्री को भी आदेश दिया कि मुनि संघ को पढ़ाने के साथ-साथ सामान्य श्रोताओं को भी संघ के साथ पढ़ाने एवं तत्त्वचर्चा में सम्मिलित करें।
पिछले प्रवचन में आये विषय को स्मरण दिलाने के प्रयोजन से आचार्यश्री ने एक प्रश्न पूछा “बताओ मुनियों के मूलगुण कितने व कौन-कौन से हैं?" उत्तर मिला - " मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण होते हैं
पंचमहाव्रत समिति पन, पंचेन्द्रिय जय पाय ।
छह आवश्यक सप्त गुण, गुण अठवीस कहाय ।। पुनः दूसरे श्रोता से पूछा- सात शेष गुणों के नाम बताओ? उत्तर मिला केशलुंच अचेलकपना, एकभुक्त व्रतधार ।
अदंतधोवन अस्नानव्रत, खड़े-खड़े आहार ।। भूमि शयन पिछली रयन, सोवत हैं ऋषिराज । सात शेष गुण इस तरह पालत हैं मुनिराज ।। संतोषजनक उत्तर पाकर विषय को आगे बढ़ाते हुए आचार्यश्री ने कहा - "देखो! मुनि के तेरह प्रकार के चारित्र के भेदों में पाँच महाव्रत एवं पाँच समितियाँ तो मूलगुणों में चर्चित हो ही गई हैं - शेष तीन गुप्तियों का संक्षिप्त स्वरूप अर्थप्रकाशिका के अनुसार निम्न प्रकार है -
संसार परिभ्रमण के कारणों से आत्मा की रक्षा करना गुप्ति है तथा 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति:' अर्थात् मन-वचन-काय रूप योगों की बाह्य प्रवृत्ति को एवं योगों की स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोककर योगनिग्रह करना गुप्ति है।
पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं- 'वीतरागभाव होने पर मन-वचनकाय की चेष्टा का न होना ही गुप्ति है।' अज्ञानी जीव बाह्य मन-वचनकाय की चेष्टा मिटाये, पाप-चिन्तवन न करे, मौन धारण करे, गमनादि न करे इसे ही गुप्ति मानता है। सो यहाँ तो मन में भक्तिरूप प्रशस्तराग से भी
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साधु के दस स्थितिकल्प
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नाना विकल्प होते हैं, वचन काय की चेष्टा स्वयं ने रोक रखी है; वहाँ शुभप्रवृत्ति है, परन्तु प्रवृत्ति में गुप्तिपना बनता नहीं है। "१
जीव के उपयोग का मन के साथ युक्त होना सो मनोयोग है, वचन के साथ युक्त होना सो वचनयोग है और काय के साथ युक्त होना सो काययोग है तथा उक्त तीनों प्रवृत्तियों की निवृत्ति होना क्रमशः मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति है। पर्याय में शुद्धोपयोग की हीनाधिकता होती है, तथापि उसमें शुद्धता की जाति तो एक ही प्रकार की है। जब जीव वीतरागभाव के द्वारा स्वरूपगुप्त रहता है, तब मन, वचन और काय की ओर का आश्रय छूट जाता है। यही निश्चयगुप्ति है ।
सर्व मोह-राग-द्वेष को दूर करके अखण्ड अद्वैत परम चैतन्य में भलीभांति मन का स्थित होना निश्चय मनोगुप्ति है। सम्पूर्ण असत्यभाषा को इस तरह त्यागना कि मूर्तिक द्रव्य में, अमूर्तिक द्रव्य में या दोनों में वचन की प्रवृत्ति का रुकना और जीव का परम चैतन्य में स्थिर होना, निश्चय वचनगुप्ति है। संयमधारी मुनि जब अपने चैतन्यशरीर से जड़ शरीर का भेदज्ञान करता है, तब अंतरंग में चैतन्यशरीर में निश्चलता होना निश्चय कायगुप्ति है।
छठवें गुणस्थानवर्ती साधु के शुभभावरूप गुप्ति भी होती है, इसे व्यवहारगुप्ति कहते हैं; किन्तु वह आत्मा का स्वरूप नहीं है, वह शुभ विकल्प है, इसलिए ज्ञानी उसे हेय समझते हैं; क्योंकि इससे बंध होता है। इसे दूर कर साधु निर्विकल्प दशा में स्थिर होते हैं, इस स्थिरता को अस्ति से निश्चयगुप्ति कहते हैं। यह निश्चयगुप्ति संवर का सच्चा कारण है। इस प्रकार मुनियों के तेरह प्रकार का चारित्र होता है।
साधु के १० स्थितिकल्प - १. अचेलकत्व, २. उद्दिष्ट भोजन का त्याग, ३. वसतिका बनवाने या सुधरवाने का त्याग, ४. राज परिवारों के घर भोजन का त्याग, ५. कृतिकर्म अर्थात् साधुओं की विनय शुश्रूषा आदि करना । ६. योग्य पात्र को ही व्रत देना । ७. अपने से ज्येष्ठ का योग्य विनय
नोट : चतुर्थ स्थितिकल्प में राजपरिवारों के घर भोजन का त्याग जो लिखा है उसकी क्या अपेक्षा है, यह हमारी समझ के बाहर हैं, संभवतः इसकी अपेक्षा राजसी भोजन के त्याग से होना चाहिए; क्योंकि प्रथमानुयोग में मुनिराज ऋषदेव को राजा श्रेयांस द्वारा आहार दिया जैसे अनेक उल्लेख मिलते हैं।