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चलते फिरते सिद्धों से गुरु लिए धूप का प्रयोग करना, नेत्रों में काजल लगाना, सुगन्धित तेल से शरीर संस्कार, चन्दनादि का शरीर पर लेपन, नासिकाकर्म (नेति करना) नसों को वेधकर रक्त निकालना आदि कार्य भी मुनि अपने शरीर - संस्कार के निमित्त कभी नहीं करते ।
६. खड़े-खड़े आहार लेना मूलाचार में कहा है कि- “दीवार आदि का सहारा न लेकर, जीव-जन्तु से रहित, तीन प्रकार की भूमि की शुद्धिपूर्वक, समपाद खड़े होकर, दोनों हाथ की अंजुली बनाकर भोजन करना, स्थितिभोजन मूलगुण है।"
भावदीपिका में कहा है- "खड़े रहकर पाणिपात्र में आहार लेना । अपने हाथ की अंगुली को पाणिपात्र या करपात्र कहते हैं। अपने दोनों हाथों की अंगुलियाँ मिलाकर पात्र बनाते हैं, उसमें गृहस्थ भक्तिपूर्वक ग्रामस रखते हैं, उस ग्रास को मुख में ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार जल ग्रहण करते हैं, उस जल से अन्तर-बाहर मुख और हस्ताशिद शुद्ध करके आहार करते हैं - ऐसे खड़े-खड़े भोजन-पान ग्रहण करना, स्थितिभोजन मूलगुण है।
७. एकभुक्त आहार - संयम, ज्ञान, ध्यान, अध्ययन एवं साधना की वृद्धि के लिए जैसा मिले, वैसा ही शुद्धरूप में आहार लेना श्रमण को अपेक्षित है। इसकी पूर्ति दिन में सूर्योदय के तीन घड़ी बीतने पर तथा सूर्यास्त से तीन घड़ी पूर्व तथा दिन के मध्यकाल में एक बार ग्रहण किये सीमित आहार से ही हो जाती है। मुनि एकाधिक बार आहार ग्रहण नहीं करते, क्योंकि एकाधिक बार भोजन संयम में बाधक है।
केशलोंच से लेकर एकभक्त तक के शेष सात मूलगुण श्रमण के बाह्य चिन्ह हैं । अन्तरंग कषायमल की विशुद्धि के लिए बाह्य क्रियाओं की शुद्धता का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रमण को प्रकृति के साथ तादात्म्य
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मुनि के २८ मूलगुण स्थापित करने, शरीर को कष्टसहिष्णु बनाने तथा लोकलज्जा और लोकभय से ऊपर उठने के लिए भी ये सात मूलगुण महत्त्वपूर्ण हैं। "
छठवें गुणस्थान में अट्ठाईस मूलगुण के अतिरिक्त अन्यवृत्ति नहीं होती। ये अट्ठाईस मूलगुण तो व्यवहार से हैं। परमार्थ से तो स्वरूप में रमना यह एक ही मूलगुण है। यहाँ सामायिक पूर्वक छेदोपस्थापना की बात की गई है। इसमें शुभ का निषेध करके निर्विकल्प सामायिकदशा हो गयी है; फिर विकल्प उत्पन्न होने पर छठवें गुणस्थान में मुनिराज ये २८ मूलगुण पालते हैं।
इसप्रकार मुनिराज के २८ मूलगुणों की निश्चय - व्यवहार नय सापेक्ष संक्षिप्त चर्चा हुई। शेष चर्चा अगले तत्त्वोपदेश में होगी । ॐ नमः ।
१. जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहादि हत्थेसु ।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिगोदं ।।
२. नियमसार गाथा ५६ से ६०
३. नियमसार गाथा ४८
४. मोक्षमार्ग प्रकाशक अधिकार-७, पृष्ठ २२८
५. नियमसार गाथा १४१-१४२
६. छहढाला छठवीं ढाल
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विनय से वन्दन करूँ
जो निरन्तर किया करते आत्मा में ही रमन । मूलगुण अठबीसयुत निर्ग्रन्थ मुनियों को नमन ।। विनय से वन्दन करूँ मैं मुनी बनने के लिए । मुक्तिमग आरूढ़ होऊँ, मुक्त होने के लिए । - रतनचन्द भारिल्ल