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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
का बाह्य परिग्रह भी कम हो जाता है।" अध्यात्म का ऐसा सहज सुमेल होता है। क्रोधादि से तीन चौकड़ी के अभाव में मोक्ष के साधक मुनिराज की अंतरंग दशा में अध्यात्म की कोई अद्भुत खुमारी होती है। उस दशा में वस्त्रादि धारण करने का राग स्वतः छूट जाता है। इसकारण वे निर्वस्त्र ही रहते हैं । जिसे अध्यात्म की दृष्टि प्राप्त नहीं है, वही ऐसे कुतर्क करता है।
भगवती आराधना में अचेलकत्व अर्थात् नग्नता मूलगुण के अनेक लाभ बताये गये हैं - १. सर्व परिग्रह का परिहार होने से त्यागधर्म में प्रवृत्ति होती है। २. आकिंचन्य धर्म में प्रवृत्ति होती है। ३. आरम्भ का अभाव होने से असंयम का अभाव होता है। ४. असत्य भाषण का कारण ही नष्ट हो जाता है। ५. लाघवगुण अर्थात् विनम्रता होती है। ६. अचौर्यव्रत की पूर्णता प्राप्त होती है। ७. रागादि का त्याग होने से परिणामों में निर्मलता आती है। ८. ब्रह्मचर्य का निर्दोष रक्षण होता है। ९. उत्तमक्षमागुण प्रगट होता है। १०. उत्तममार्दवगुण प्रगट होता है। ११. आर्जव गुण प्रगट होता है। १२. शौचगुण प्रगट होता है । १३. उपसर्ग
और परिषह सहन करने की सामर्थ्य प्रगट होती है। १४. घोर तप का पालन होता है। १५. संयम शुद्धि होती है। १६. इन्द्रिय-विजय गुण प्रगट होता है। १७. लोभादिक कषायों का अभाव होता है। १८. परिग्रहत्याग गुण प्रगट होता है। १९. आत्मा निर्मल होता है। २०. शरीर के प्रति उपेक्षा प्रगट होती है। २१. स्ववशता गुण प्रगट होता है। २२. मन की विशुद्धि प्रगट होती है। २३. निर्भयता गुण प्रगट होता है। २४. अपना बल वीर्य प्रगट होता है । २५. तीर्थंकरों के द्वारा आचरित गुण प्राप्त होता है।
अधिक क्या कहें ? जितने तीर्थंकर हो चुके हैं और होनेवाले हैं, वे सब वस्त्र रहित होकर ही तप करते हैं। जिन प्रतिमाएँ और तीर्थंकरों के अनुयायी गणधर भी निर्वस्त्र ही होते हैं।
मुनि के २८ मूलगुण
३. भूमिशयन - मूलाचार के अनुसार रात्रि के पिछले प्रहर में अल्पनिद्रा, संस्तर से रहित एकान्त प्रासुक भूमिप्रदेश में दण्डाकार या धनुषाकार शयन करना भूमिशयन मूलगुण है। छहढाला में कहा है कि -
"भूमांहि पिछली रयनि में, कछु शयन एकासन करन ।।"
अनगारधर्मामृत में अध्याय ९, श्लोक ७ में लिखा है - “साधुजन थोड़े समय को शारीरिक थकान को दूर करने के लिए क्षणिक योगनिद्रा ग्रहण करते हैं । वस्तुत: निद्रा भी योग के तुल्य है, क्योंकि निद्रा में इन्द्रिय, आत्मा, मन और श्वास सूक्ष्म अवस्थारूप हो जाते हैं।" ___ इस संबंध में भावदीपिकाकार कहते हैं - “रात्रि के पिछले प्रहर में प्रासुक पृथ्वी पर अल्पनिद्रा सहित सोते हैं। जन्तुरहित पृथ्वी को देखकर पिच्छिका से परिमार्जन करके शयन करते हैं। पिच्छिका से जीवों का ही परिमार्जन करते हैं, कंकड़ादि को नहीं हटाते ।
भूमि शयन इन्द्रिय सुखों का परिहार करने के लिए, तप की भावना के लिए और शरीर आदि से नि:स्पृहता आदि के लिए किया जाता है। इस गुण के पालन से शरीर के प्रति ममत्व का निरास होता है।
४. अदन्तधोवन - मूलाचार में लिखा है - "संयम की रक्षा हेतु मुनिजन अंगुली, नख, दांतोन, तृण-विशेष, पत्थर, छाल आदि के द्वारा दांत के मल का शोधन नहीं करते । यह अदन्तधोवन मूलगुण है।
५. अस्नानव्रत - जल का सिंचन, उबटन, तैलमर्दन, शरीरसंस्कार आदि का त्याग करना, अस्नान मूलगुण है। मुनि शरीर का किंचित् भी संस्कार नहीं करते । मुख, नेत्र और दांतों का प्रक्षालन, शोधन, सुगन्धित द्रव्य से उबटन, अङ्गमर्दन, मुष्टि, काष्ठ-यंत्र आदि से शरीर दबाना आदि मुनि नहीं करते तथा शरीर के अवयवों को धूप से सुगंधित करना अथवा रोग की आशंका व शोक आदि से बचने के लिए, मानसिक आह्लाद के
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