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चलते फिरते सिद्धों से गुरु २. ऋषभ आदि तीर्थंकरों के नाम का कथन और गुणों का कीर्तन करके तथा उनकी पूजा करके, उनको मन, वचन, कायपूर्वक नमस्कार करना स्तवन आवश्यक है। ___३. अरहंत, सिद्ध और उनकी प्रतिमा तथा तप, श्रुत या गुणों में बड़े गुरु और स्वगुरु का, कृतिकर्मपूर्वक अथवा बिना कृतिकर्म के मन-वचनकायपूर्वक प्रणाम करना वन्दना आवश्यक है।
४. निन्दा और गर्हापूर्वक, मन-वचन-काय के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के विषय में किये गये अपराधों का शोधन करना, प्रतिक्रमण है।
५. भविष्यकाल में आने वाले नाम, स्थापना आदि छहों अयोग्य कर्म का मन-वचन-काय से वर्जन करना, प्रत्याख्यान आवश्यक है।
६. दैवसिक, रात्रिक और नियमरूप क्रियाओं में, आगम में कथित प्रमाण के द्वारा एवं निर्धारित काल में जिनेन्द्रदेव के गुणों के चिन्तवन सहित शरीर से ममत्व का त्याग करना, कायोत्सर्ग आवश्यक है। शेष सात गुण -
१. केशलोंच - शेष सात मूलगुणों में केशलोंच नामक मूलगुणों के संबंध में मूलाचार में कहा है - "हाथों से मस्तक और दाढी-मूंछ के बालों को उखाड़ना, लोच या केशलोंच कहलाता है। यह केशलोंच दिन में, प्रतिक्रमण सहित एवं उपवासपूर्वक किया जाता है। इसकी अवधि क्रमश: दो, तीन, चार माह है; जिसे उत्तम, मध्यम और जघन्य कहा जाता है।" ___ केशलोंच करने का प्रयोजन यह है कि सम्मूर्च्छन जूं आदि उत्पन्न न हो जावें तथा शरीर से रागभाव आदि को दूर करने के लिए, अपनी शक्ति को प्रगट करने के लिए, सर्वोत्कृष्ट तपश्चरण के लिए और निर्ग्रन्थ मुद्रा आदि के गुणों को बतलाने के लिए, हाथ से मस्तक तथा दाढ़ी-मूंछ के केशों को उखाड़ा जाता है।
मुनि के २८ मूलगुण
बालों को हाथों से ही उखाड़ते हैं। उस्तरा-कैंची इत्यादि से नहीं, क्योंकि उस्तरा आदि से केशों को दूर करने में दैन्यवृत्ति होती है, याचना करनी पड़ती है और परिग्रह रखना पड़ता है, किन्तु हाथ से केशों को दूर करने में ये दोष नहीं आते । यही कारण है कि स्वाधीनवृत्ति वाले मुनिराज हाथ से ही केशलोंच करते हैं।
२. अचेलकत्व (अचेलकपना)- श्रमण अवस्था में सम्पूर्ण परिग्रह को चेल शब्द से कहा गया है। नहीं है चेल जिसके, वे अचेलक हैं, अचेलक का भाव अचेलकत्व है अर्थात् सम्पूर्ण वस्त्र, आभरण इत्यादि का परित्याग करना, अचेलक्य व्रत है। वस्त्र और वल्कलों से शरीर को नहीं ढंकना, भूषण, अलंकार और परिग्रह से रहित होना अचेलकत्व मूल गुण है।
किसी भी प्रकार के वस्त्र से शरीर को ढंकने से उन वस्त्रों के आश्रित हिंसा अनिवार्य है; उनको संभालना, धोना, सुखाना, फट जाने पर दूसरों से माँगना आदि प्रसंग अवश्य आयेंगे। इन कारणों से साधु को ध्यान और अध्ययन में बाधा अवश्य आयेगी; इसलिए नग्नवेश धारण करना, यह आचेलक्य मूलगुण है। ___ अशरीर सिद्धपद की साधना में तत्पर मुनिराज को शरीर साफसुथरा रखने की, उसे वस्त्र से ढांकने इत्यादि की व्यवस्था करने की वृत्ति नहीं होती। यदि शरीर को वस्त्र से ढांकने की वृत्ति उत्पन्न हो जाये तो मुनिपना नहीं रहता।
एक निश्चयाभासी श्रोता बीच में बोला - "अध्यात्मदृष्टि में मुनि को वस्त्र हों या नहीं हों, इससे क्या है ? वस्त्र तो परद्रव्य है न ?” । ___इसका समाधान करते हुए आचार्य श्री ने कहा “जिसको अध्यात्म की दृष्टि प्राप्त होती है, उसको उतने प्रमाण में राग भी छूट जाता है और जहाँ जितने अंश में राग कम हो जाता है, वहाँ स्वेच्छापूर्वक उसप्रकार
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