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________________ आचार्यश्री के प्रवचन की प्रतीक्षा में बैठे-बैठे सहस्त्रों श्रोता विगत प्रवचन में आये विषयों की परस्पर चर्चा कर रहे थे और आचार्यश्री द्वारा दिये गये मार्गदर्शन की तथा तत्त्वज्ञान के सरल विवेचन के प्रति प्रसन्नता प्रगट करते अपने भाग्य की सराहना कर रहे थे। हुए एक ने कविता में कहा - " मंगलमय अवसर आया, मुनिवर का प्रवचन पाया। सुन कर मन हरषाया, मानव भव सफल बनाया ।। " दूसरा बोला- वाह ! तुम तो आशु कवि हो । तत्काल कविता बना लेते हो। सचमुच हम सब बड़े भाग्यशाली हैं, अन्यथा किसे मिलते हैं ऐसे प्रवचन? तभी आचार्य महाराज ससंघ सभामंडप में पधार गये, श्रावकों द्वारा वंदना के पश्चात आचार्य श्री ने अपने व्याख्यान को प्रारंभ करते हुए कहा - • “दिगम्बर मुनि के अन्तर - बाह्य स्वरूप की चर्चा के प्रसंग में आज मुनि की आहार चर्या तथा उनके बारह तप की चर्चा करेंगे। सर्वप्रथम यह बतायेंगे कि आहार दाता कैसा होता है ? पात्र कैसा होता है और आहार तथा आहार की विधि कैसी होती है ? - इस सबकी संक्षिप्त चर्चा करने के बाद १२ तपों की आगम के आधार पर चर्चा करेंगे। अतः सभी श्रोता सावधान होकर सुनें और समझने का प्रयास करें। श्रावक द्वारा नवधाभक्ति से ही आहार लेने के पीछे यद्यपि मुनियों को अपनी भक्ति कराने का लोभ नहीं होता, तथापि वे स्वाभिमान के साथ शुद्ध आहार लेते हैं। वे ऐसे वैराग्यवंत होते हैं कि - शरीर के लिए सदोष और दीक्षा से आहार नहीं लेते। एतदर्थ श्रावक को नवधाभक्ति करना आवश्यक है, अन्यथा मुनि श्रावक के द्वार पर रुकेंगे ही नहीं। नवधाभक्ति में मुनि को आहार के लिए अपने घर की ओर आते 36 दिगम्बर मुनि की आहार चर्या, नग्नता द्रव्यलिंग के भेद देखकर सर्वप्रथम श्रावक द्वारा श्रद्धापूर्वक कहा जाता है कि - १. हे स्वामी ! “पधारो... पधारो...पधारो” अथवा “अत्र तिष्ठः तिष्ठः तिष्ठः " ऐसा तीन बार विनय सहित कहना प्रतिग्रह या पड़गाहन कहलाता है। २. फिर “मन वचन काय शुद्ध हैं" इसप्रकार शुद्धि बोलते हैं। ३. पड़गाहन के बाद उच्च आसन, पादप्रक्षाल (पैर धोना) होता है। ४. पूजन सामग्री (अष्ट द्रव्य) से विधिपूर्वक पूजन की जाती है। ५. आहार दाता घुटने टेककर पंचाग प्रणाम करता है। ६. मनशुद्धि हेतु संसार, व्यापार संबंधी अशुभ विकल्प नहीं करता । ७. वचनशुद्धि में आहारदान के समय कठोर वचन नहीं बोलता । ८. कायशुद्धि - बाह्य शारीरिक अशुद्धि नहीं रखता । ९. आहारशुद्धि - शास्त्रानुसार निर्दोष आहार हो यह नवधा भक्ति साधु के स्वाभिमान की प्रतीक है । - इसप्रकार प्रसन्नतापूर्वक आहार देता है कि “अहो ! धन्य मेरा भाग्य, जो मेरे आंगन में मुनिराज का आगमन हुआ।" इसप्रकार उत्तम पात्र मुनि को नवधाभक्तिपूर्वक और मध्यम - जघन्य पात्र को उनके योग्य विनय सहित आहार दान देता है। मुनि की भ्रामरी या मधुकरी वृत्ति होती है। आहारदाता पर भाररूप हुए बिना आहार लेना भ्रामरी वृत्ति है । इस आहार को भ्रमराहार भी कहते हैं। जैसे भ्रमर फूलों को हानि पहुँचाये बिना फूलों का थोड़ा र पीकर अपने को तृप्त कर लेता है, वैसे ही लोक में अपरिग्रही श्रमण दातार द्वारा दिये गये निर्दोष आहार को निर्दोष विधि से ग्रहण करते हैं। मुनि के आहार की चर्चा करके यह कहा गया है कि अहिंसा धर्म की पूर्ण आराधना करनेवाला श्रमण अपने जीवन-निर्वाह के लिए भी किसी को कष्ट न पहुँचाये तथा जीवन को संयम और तपोमय बनाकर धर्म और धार्मिकों की एकता स्थापित करे ।
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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