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________________ चलते फिरते सिद्धों से गुरु ४६ ग्रहण करते हैं ? समाधान यह है कि आत्मकल्याण के पावन उद्देश्य से घर-परिवार, सांसारिक सुख-सुविधाओं, वैभव एवं भोगोपभोग के साधनों का परित्याग करके मुनिधर्म अंगीकार किया जाता है। वस्तुत: आत्म-संयमरूप वीतराग परिणति की अभिवृद्धि करना ही मुनिराज का उद्देश्य होता है। इसीलिए आत्मकल्याण के अभिलाषी, संयमी मुनिराजों का आहारग्रहण भी संयम की साधना के लिए ही होता है। देह-पोषण का रंचमात्र भी उद्देश्य उसमें निहित नहीं होता। संयम एवं शुद्धोपयोग की साधना में शरीर बाह्य निमित्त होता है और शरीर की स्थिति में आहार निमित्त होता है। यही कारण है कि मुनिराज शरीर की स्थिति एवं संयम की साधना हेतु ही आहार लेते हैं। मुनिराज, बल, आयु, स्वाद, शरीर की पुष्टि के लिए आहार नहीं लेते; अपितु ज्ञान, ध्यान और संयम के लिए आहार ग्रहण करते हैं। कोई कुछ भी कहे इसके पूर्व ही आचार्यश्री ने चर्चा को विराम देते हुए कहा- शेष चर्चा - समाधान अगले उपदेश के कार्यक्रम में करेंगे। १. विषयाशावशातीतो: निरारंभो परीग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी सः प्रशस्यते ।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र २. ये व्याख्यायान्ति न शास्त्रं न ददाति दीक्षादे कंचशिष्याणां । कर्मोन्यूनाशक्ता, ध्यानरतास्तेऽत्र साधवो ज्ञेयाः ।। - क्रियाकलाप ३/१/५१४३ ३. सम सत्तु बंध वग्गो, सम सुह दुक्ख पसंस निन्दसमो। सम लोह कंचणो पुण जीवित मरणे समो समणो । प्रवचनसार गाथा ४१ : आ. कुन्दकुन्द ४. रत्नत्रयभावना स्वात्मानं साधयतीति साधुः । तात्पर्यवृत्ति टीका, प्रवचनसार ५. पंचाध्यायी, उत्तरार्द्ध, श्लोक ६६७ से ६७४ तक, ४. नियमसार गाथा २४ ६. प्रवचनसार गाथा ७ ८. मोक्षमार्गप्रकाशक, कुछ अध्याय पृष्ठ २९९ । आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल ९. देव-शास्त्र-गुरु पूजन, डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल १०. प्रवचनसार गाथा १ की तात्पर्यवृत्ति टीका ७. पंचाध्यायी, गाथा ७१९, ७१०, ७११, ७१२ 24 श्रोता परस्पर में कल के मुनिधर्म की महिमा पर हुए उपदेश की चर्चा कर ही रहे थे कि आचार्यश्री पधार गये और उपदेश प्रारंभ हुआ। - आचार्यश्री ने कुन्दकुन्द को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हुए कहा - "देखो, आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'यदि चतुर्गति के दुःखों से मुक्त होने की इच्छा है तो श्रामण्य को अंगीकार करो, क्योंकि मुनि हुए बिना संसार के दुःखों से मुक्ति संभव ही नहीं है', परन्तु मैं कहता हूँ कि 'मुनि बनने के पहले मुनीम बनना जरूरी है। जिसतरह मुनीम को यह भेदज्ञान बराबर होता है कि सारी संपत्ति सेठ की है, मैं तो केवल वेतन का मालिक हूँ। भले ही वह व्यवहार में व्यापार के नफा-नुकसान को अपना कहता है, पर मानता यही है कि इससे मुझे क्या ? दूसरे, वह सही खतौनी करना जानता है। जिसका पैसा आता-जाता है, उसी के खाते में जमाखर्च करता है। कभी गलत जमा-खर्च नहीं करता। ठीक इसीप्रकार जो स्वाध्यायी श्रावक पर पदार्थों का स्वामी नहीं बनता, पर से भेदज्ञान कर पर को पर एवं निज को निज जानता है तथा सात तत्त्वों को यथार्थ स्वरूप पहचान कर एक तत्त्व को दूसरे में नहीं मिलाता। आस्रव को आस्रव ही जानता है। आस्रव को संवर नहीं मानता। जीव-अजीव को भिन्न-भिन्न जानता है। बंध व मोक्ष के कारणों में भूल नहीं करता । सही भेदज्ञान के बाद ही सही मुनिपना होता है। पहले जब सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान हो जाता है, तब कहीं संसार, शरीर और भोगों से उदासीनता होती है, परिषहादि पर विजय प्राप्त करने की शक्ति प्रगट होती है, तभी व्यक्ति स्वयं मुनि होना चाहता है। " आचार्य कुन्दकुन्द और पद्मप्रभमलधारिदेव भी इसी बात को पुष्ट
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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