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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
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करते
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कहते हैं कि “साधु समस्त आरंभादि बाह्य व्यापार से मुक्त हुए तथा चतुर्विध आराधना में सदा तत्पर एवं अनुरक्त रहते हैं । मुनिराजों की कुछ विशेषताएँ इसप्रकार हैं- १. मुनिराज सकल संयमी होने से तथा परम पारिणामिकभाव की भावना से परिणत होने से समस्त बाह्य व्यापार
विमुक्त होते हैं । २. वे बाह्य आभ्यन्तर- समस्त परिग्रह से रहित होने से ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं । ३. निज कारण परमात्मा के सम्यक् श्रद्धान- ज्ञान और सम्यक् आचरण के प्रतिपक्षी मिथ्यादर्शन - ज्ञान और मिथ्याचारित्र का अभाव होने से निर्मोही होते हैं।
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आचार्य कुन्दकुन्द पुनः कहते हैं कि “मुनिराज का बहिर्लिंग जन्मजात बालकवत् निर्विकार, सिर, दाढ़ी-मूंछ के बालों का लोंच किया हुआ अकिंचन हिंसादि से रहित और शारीरिक शृंगार से रहित होता है।"१
श्रामण्य का अंतरंग लिंग मूर्छा (ममत्व) और आरंभ से रहित, एवं उपयोग और योग की शुद्धि से सहित तथा पर की अपेक्षा से रहित होता है ।
पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक में साधु का सामान्य स्वरूप इस प्रकार लिखा है - " मुनिराज की अंतरंग परिणति में अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान संबंधी तीन कषाय चौकड़ी के अभाव के कारण शुद्धपरिणति विशेष होती है। वे अंतरंग-बहिरंग परिग्रह से रहित होकर शुद्धोपयोगी होते हैं। अंतरंग में शुद्धोपयोग से अपने को आपरूप अनुभव करते हैं। वे परद्रव्य में अहंबुद्धि धारण नहीं करते, आत्मस्वरूप को साधते हैं । परद्रव्य में इष्ट-अनिष्टपना मानकर राग-द्वेष नहीं करते, निरन्तर भेदज्ञान में रत रहते हैं।"
पण्डित दौलतरामजी ने अनेक शास्त्रों के साररूप छहढाला की छठवीं ढाल में मुनिराज की शुद्धोपयोग दशा को इसप्रकार व्यक्त किया है - " जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया । वरणादि अरु रागादि तैं निज भाव को न्यारा किया ।। निज माँहि निज के हेतु निजकर, आपको आपै गह्यो । गुण-गुणी ज्ञाता-ज्ञान- ज्ञेय मँझार कछु भेद न रह्यो ॥ ८ ॥
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मुनि के २८ मूलगुण
तथा -
जहँ ध्यान- ध्याता - ध्येय को न विकल्प, वचभेद न जहाँ । चिद्भाव कर्म चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ ।। तीनों अभिन्न अखिन्न, शुध - उपयोग की निश्चल दशा । प्रगटी जहाँ दृग ज्ञान-व्रत, ये तीनधा एकै लसा ।। ९ ।। अर्थात् जिन्होंने सुबुद्धिरूपी पैनी छैनी से वर्ण आदि और रागादि से अपने ज्ञानानन्दस्वभाव को भिन्न जान लिया है, दोनों से अपने आत्मा का भेदज्ञान कर लिया है एवं आत्मा में आत्मा के ही द्वारा अपने आत्मा में ही अपनापन ग्रहण कर लिया है तथा स्वयं ध्यान रूप होकर अभेद, अखंड और निर्विकल्प अनुभव कर लिया है। चैतन्यस्वभावी भगवान आत्मा स्वयं ही कर्ता, स्वयं ही कर्म और स्वयं ही क्रियारूप से परिणत होकर तीनों को अभिन्न, अक्षीण और शुद्धोपयोगरूप होकर निश्चलता प्राप्त कर ली है, वहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र भी अभेद एक रूप सुशोभित होने लगते हैं।
मुनिराज नग्न तो होते ही हैं, उनमें और भी बाह्य अनेक विशेषताएँ होती हैं, जो इसप्रकार हैं
“मुनिधर्म की प्रारंभिक भूमिका में छटवें गुणस्थान के समय उन्हें अट्ठाईस मूलगुण पालन करने के जो शुभभाव होते हैं, उन्हें वे रागरूप होने से धर्म नहीं मानते तथा उन्हें उस काल में भी तीन कषाय चौकड़ी का अभाव होने से जितने अंश में वीतराग रूप शुद्ध परिणति वर्तती है, उतने अंश में ही वीतराग भावरूप धर्म होता है।
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियरोध, छह आवश्यक, केशलोंच, अचेलपना, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधोवन, खड़े-खड़े भोजन और एक बार आहार - वास्तव में ये श्रमणों के मूलगुण हैं; उनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थान होता है।