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चलते फिरते सिद्धों से गुरु इसी की विशुद्धि के लिए यह नियम रखा गया है कि आहारचर्या के बाद साधु आचार्यश्री के पास जाकर सब कुछ निवेदन करें और उनके आदेशानुसार प्रायश्चित्त करें ।'
इस बात को ध्यान में रखकर वीतरागी साधुओं को गृहस्थों के समागम से बचने का पूरा-पूरा प्रयत्न करना होता है। यदि गृहस्थों को मुनियों का सत्समागम मिल जाता है तो वे उनसे वीतराग चर्चा ही करें. तत्त्वज्ञान समझने का ही प्रयास करें। मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने का मार्गदर्शन प्राप्त करें।
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मुनिराज उद्दिष्ट आहार के त्यागी होते हैं। उनकी वृत्ति को मधुकरी वृत्ति कहा गया है। जिसप्रकार भौंरा या मधुमक्खी जिन फूलों से मधु ग्रहण करती है, रस ग्रहण करती है; उसे रंचमात्र भी क्षति नहीं पहुँचाती । उसी प्रकार मुनिराज भी, जिसके यहाँ आहार लेते हैं, उसे किसी भी प्रकार का दुःख नहीं पहुँचने देते, उसे दुःखी होने में निमित्त नहीं बनते । इसीकारण वे किसी का आमंत्रण स्वीकार नहीं करते और किसी को आहार बनाने का आदेश - उपदेश भी नहीं देते। गृहस्थ स्वतः अपनी भक्ति व शक्ति के जैसा भी भोजन बना कर नवधा भक्ति से पड़गाहन कर आहार अनुसार कराता है, उसे ४६ दोष टालकर ग्रहण करते हैं। यही मुनिराज का यथार्थ उद्दिष्ट आहार का त्याग है।
कुछ लोग उद्दिष्ट त्याग भोजन के अर्थ करने में अति करते हैं। वे उद्दिष्ट त्याग को दातार से जोड़ते हैं, जबकि उद्दिष्ट आहार के त्यागी मुनिराज हैं।
मुनिराज किसी से यह नहीं कहते कि वे कैसा आहार लेंगे, कहाँ से लेंगे, कब लेंगे ? ऐसा कोई संकेत भी नहीं करते, बल्कि वृत्तिपरिसंख्यान व्रत के अनुसार ऐसी अटपटी प्रतिज्ञायें लेते हैं, जिसका कोई अनुमान भी मुश्किल से लगा पाता; फिर भी आहार दाता गृहस्थ नानाप्रकार से अनुमान लगा कर पड़गाहन की विधियाँ बदल-बदल कर मुनि को पड़गाहन करने का प्रयत्न करता है और आहार की विधि मिलने पर अपनी भक्ति व शक्ति के अनुसार साधु के स्वास्थ्य और रुचि के अनुकूल आहार कराकर अपने को धन्य मानता है। इससे वह विशेष पुण्यार्जन करता है। हमने तो ऐसा सुना है कि गृहस्थ
एक श्रोता ने आशंका प्रगट की
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दिगम्बर मुनि: स्वरूप और चर्या
अपने लिए बने भोजन को ही मुनि के आहार में देता है, क्योंकि मुनि को आहार देने के लिए बनाया भोजन उद्दिष्ट होता है; पर मेरी समझ में यह नहीं आता; क्योंकि यह संभव ही नहीं है। यदि कोई भी व्यक्ति एक भी ऐसा उदाहरण बता सके तो अवश्य बताये। भले वह उदाहरण पुराण का हो या आज के संदर्भ में हो।
यदि किसी आचार्य का ऐसा स्पष्ट युक्ति संगत आदेश आगम में बता सके तो सबसे अधिक खुशी मुझे होगी। मुझे तो अब तक बहुत खोजने पर भी ऐसा उदाहरण देखने में नहीं आया।
अब तक के प्राप्त आधार और युक्तियों से तो मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि - ‘गृहस्थ यदि किसी एक व्यक्ति विशेष मुनि को आहार बनाता है और अन्य द्वार पर आये मुनियों की उपेक्षा कर उन्हीं की प्रतीक्षा व पड़गाहन करता है तो वह आहार उद्दिष्ट है। सामूहिक रूप से किसी भी मुनि के लिए आहार बनाना उद्दिष्ट नहीं है।
यदि ऐसा हो तो अकम्पाचार्य आदि मुनि संघ को धुंआ से गला रुंध जाने के कारण सेवयियों का ही आहार क्यों / कैसे दिया गया ? मुनि आदिनाथ को इच्छुरस का ही आहार क्यों दिया गया ? क्या वह सब आहार गृहस्थ ने अपने लिए ही बनाया था।
बीमार मुनिराजों के आहार में औषधि देने का विधान आगम में है तो क्या वही बीमारी दातार को होना जरूरी है, जो मुनिराज को है ? और प्रत्येक घर में सभी शुद्ध, सात्त्विक, मर्यादित औषधियों का भंडार होना संभव है ? दवायें पात्र की बीमारी के अनुकूल उन्हीं के लिए बनाई जायेंगी तो आपकी व्याख्या के अनुसार तो दवायें भी उद्दिष्ट आहार की श्रेणी में ही मानी जायेंगी। फिर उस शास्त्र की आज्ञा का क्या होगा?
हाँ, मुनिराज कहेंगे नहीं कि अमुक दवा बना कर दो। पर दातार तो पात्र की बीमारी के हिसाब से ही बनायेगा न! उद्धिष्ट त्याग मूलगुण आहारदान दाता गृहस्थ का एक गुण नहीं, मुनि का है। अतः जब मुनि यह ज्ञात हो जायेगा कि यह आहार स्पेशल मेरे लिए ही बनाया है तो वह मुनि उस आहार को नहीं लेगा।"
किसी को जिज्ञासा हो सकती है कि मुनिराज किस उद्देश्य से आहार