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चलते फिरते सिद्धों से गुरु है, आटोमेटिक है। यह अनादि-अनंत हैं, इसे न किसी ने बनाया है और न कोई इसका विनाश करता है।"
श्रोता ने पुन: साहस करके पूछा- “तो उस स्तुति का क्या अर्थ है ?"
आचार्यश्री ने कहा - "अरे भाई ! वहाँ तो कवि भगवान महावीर स्वामी से यह कह रहा है कि "हे प्रभो ! आप पतित से पावन बन गये हो, मारीचि से महावीर बन गये, शेर से सन्मति बन गये, भक्त से भगवान बन गये हो।" यह अर्थ तो है 'प्रभु पतितपावन' वाक्य का और 'मैं अपावन' वाक्य का अर्थ है कि “मैं अभी भी रागी-द्वेषी व अज्ञानी हूँ, संसारी हूँ, दुःखी हूँ; अत: मैं आप की शरण में यह जानने आया हूँ कि आप पतित से पावन कैसे बने? भक्त से भगवान कैसे बने ? मैं भगवान कैसे बनूँ ? यह जानने के लिए आपके चरणों की शरण में आया हूँ? आप मुझे यह बताइए। यह मुझे मालूम है कि आप तो पूर्व पर्यायों में मुझसे भी गये-बीते थे, जब आप भगवान बन सकते तो मैं क्यों नहीं?" ___तब भगवान ने मौन रहते हुए मानो अंग-अंग से उत्तर दिया - "तू मेरी तरह निश्चल बैठकर नाशाग्र दृष्टि करके अन्तर्मुख ध्यानस्थ होकर अपने स्वरूप की पहिचान कर, तू अभी भी स्वभाव से तो कारण परमात्मा है ही, उसकी श्रद्धा एवं ध्यान से तू पर्याय में भी कार्य परमात्मा बन जायेगा। ___ तथा ऐसा विचार कर कि - “मैंने पूर्व में जैसे पुण्य या पाप रूप कर्म किए हैं, उन्हीं का शुभ या अशुभ फल मुझे अब प्राप्त हुआ है और यदि अब भी नहीं चेता तो आत्मा की पर्यायों से भी यही दुर्गति होगी। यदि दूसरों के द्वारा दिया फल मुझे मिले, तब तो मेरे किए पुण्य-पाप सब निरर्थक सिद्ध होंगे।" तात्पर्य यह है कि जीव अपने पुण्य-पाप का फल ही भोगता है। कोई किसी को सुखी-दुःखी नहीं कर सकता।
यह सुनकर सभी श्रोता गद्गद् हो गये। सबको ऐसा लगा - "अरे ! हमने यह तो कभी सोचा ही नहीं था और सुना भी नहीं था कि भगवान किसी का भला नहीं करते, कर भी नहीं सकते; क्योंकि जैनधर्म के
मुनिपद की महिमा अनुसार भगवान तो जगत के अकर्ता हैं और सब जीव अपने पुण्य-पाप और धर्म का ही फल पाते हैं। कहा भी है -
स्वयं कतं कर्म यदात्मना परा फलं तदीयं लभते शभाशभं। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा।।
जैन दर्शन के अनुसार अरहंत भगवान को पतितों को पावन करने वाला नहीं मान सकते; क्योंकि अरहंत भगवान तो मात्र ज्ञाता होते हैं, कर्त्ता नहीं।
कोई कहेगा कि व्यवहार से तो कह सकते हैं। उससे कहते हैं कि ऐसा कहना व्यवहार है, पर ऐसा ही मान लेना मिथ्यात्व है। व्यवहार से कहने का कोई खास अर्थ नहीं होता । जब हम किसी को अपना घर दिखाते हैं एवं बच्चों से परिचय कराते हैं तो उससे ऐसा कहते हैं कि ये घर आपका ही है, ये बच्चे भी आपके ही हैं, सुननेवाला भी समझता है कि मुझे सम्मान देने को ऐसा कह रहा है । वह ऐसा ही नहीं मान लेता कि यह घर व बच्चे मेरे हैं।"
पण्डित टोडरमलजी देवभक्ति के अन्यथा स्वरूप में कहते हैं - "उन अरहन्तों को स्वर्ग-मोक्षदाता, दीनदयाल, अधम उधारक, पतितपावन मानता है; सो जैसे अन्यमती कर्तृत्वबुद्धि से ईश्वर को मानता है; उसी प्रकार यह अरहन्त को मानता है। ऐसा नहीं जानता कि फल तो अपने परिणामों का लगता है, अरहन्त तो निमित्तमात्र हैं, इसलिये उपचार द्वारा वे विशेषण सम्भव होते हैं।
तथा अरहन्तादिक के नाम-पूजनादिक से अनिष्ट सामग्री का नाश तथा इष्ट सामग्री की प्राप्ति मानकर रोगादि मिटाने के अर्थ व धनादिक की प्राप्ति के अर्थ नाम लेता है व पूजनादि करता है। सो इष्ट-अनिष्ट का कारण तो पूर्वकर्म का उदय है, अरहन्त तो कर्ता हैं नहीं। अरहन्तादिक की भक्तिरूप शुभोपयोग परिणामों से पूर्वपाप के संक्रमणादि हो जाते हैं, इसलिये उपचार से अनिष्ट के नाश का व इष्ट की प्राप्ति का कारण अरहन्तादिक की भक्ति कही जाती है। परन्तु जो जीव प्रथम से ही सांसारिक प्रयोजनसहित भक्ति करता है उसके तो पाप ही का अभिप्राय हुआ।
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