________________
चलते फिरते सिद्धों से गुरु
कांक्षा, विचिकित्सारूप भाव हुए - उनसे पूर्व पाप के संक्रमणादि कैसे होंगे? इसलिये उसका कार्य सिद्ध नहीं हुआ।"
पंचास्तिकाय में कहा है कि - "यह भक्ति केवल भक्ति ही है, प्रधान जिसके ऐसे अज्ञानी जीव के होती है। तथा तीव्र रागज्वर मिटाने के अर्थ या अस्थान के राग का निषेध करने के अर्थ कदाचित् ज्ञानी के भी होती हैं।"
परन्तु भक्ति में उपचार से कभी कदाचित् अरहंत को सुख का दाता और दुःख का हर्ता कह देते हैं, उसके कहने का अर्थ मात्र इतना है कि जब भक्त मंद कषाय और शुभभावों से स्वयं ही पुण्य बांध कर अनुकूल फल प्राप्त करता है तो उसे ही भगवान की भक्ति का फल कह देता है; परन्तु मानता यही है कि फल अपने परिणामों का ही मिलता है, भगवान उसके कर्ता नहीं है। ___ एक श्रावक ने पूछा कि - "यदि ऐसा है तो फिर भगवान को पूज्य कहने का क्या प्रयोजन रहा? और हम भगवान की पूजा-भक्ति क्यों
मुनिपद की महिमा
दूसरा प्रयोजन परमात्मा बनने का है, वह प्रयोजन भी परमात्मा के स्वरूप को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानने-पहचानने से, उसी में चित्त को रमाने से पूरा हो जाता है। कहा भी है -
"जो जाणदि अरहतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं ।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।। जो अरहंत भगवान को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानता है, वह निश्चय से अपने आत्मा को जानता ही है और उसका मोह नियम से नष्ट हो जाता है।
जब तक परिपूर्ण ज्ञान एवं पूर्ण पवित्रता की प्राप्ति अपने जीवन में नहीं हो पाती, तबतक न चाहते हुये भी शुभभावों के रहने से ज्ञानी धर्मात्माओं को भी सातिशय पुण्यबंध सहज ही होता रहता है, जिसके निमित्त से लौकिक अनुकूलतायें भी बनी ही रहती हैं।
अन्य अज्ञानी जीवों के भी यदि पूजा करते समय मंद कषाय हुई तो उतनी देर पापों से निवृत्ति के कारण उन्हें भी यथायोग्य पुण्य की प्राप्ति हो जाती है। यदि किसी के मन में लौकिक कामना की तीव्र कषाय रही तो पूजा जैसे पवित्र कार्य करते हुए भी पापबंध भी होता है; क्योंकि पुण्यपाप बंध भी तो भावों से ही होता है। कहा भी है -
बन्ध-मोक्ष परिणामनि ही सों, कहत सदा ये जिनवर वाणी।
इसप्रकार आज पूज्य, पूजक, पूजा और पूजा के प्रयोजन तथा उसके फल के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की। इन विषयों को जानकर पहचानकर उन्हें अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करें। आज इतना ही, शेष अगले प्रवचन में।
ॐ नमः । .
करें?"
उत्तर मिला - “पूजन के मुख्यतः दो ही प्रयोजन हैं - एक पापों से बचना और दूसरा परमात्मपद प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करना।
पहला प्रयोजन तो इस तरह पूरा हो जाता है कि जब तक अरहंत व सिद्ध परमात्मा हमारे ध्यान में विचरेंगे; तब तक पाँचों पाप, पाँचों इन्द्रियों के विषय एवं राग-द्वेषादि मनोविकार हमारे ध्यान में आ ही नहीं सकेंगे; क्योंकि ध्यान में परमात्मा और पाप एक साथ नहीं ठहरते।
क्षेत्र व काल की अपेक्षा भी जिन मन्दिर में और पूजा-पाठ करते समय हम विषय-कषाय के वातावरण से अछूते ही रहते हैं; क्योंकि मन्दिर की मर्यादित सीमा में विषय-विषधर प्रवेश नहीं पाते। इस कारण मन्दिर में पाप करने का कोई प्रसंग नहीं बनता।
१. पूजन संबंधी विशेष जानकारी हेतु देखें लेखक की लोकप्रिय कृति जिनपूजनरहस्य । २. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-२२२ ३. गाथा १३६ की टीका पंचास्तिकाय ४. प्रवचनसार गाथा ८०
14