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________________ आज के प्रवचन को प्रारंभ करने के पहले आचार्यश्री ने पिछले प्रवचन के विषय की याद दिलाते हुए श्रोताओं से प्रश्न किए तथा सभी से संतोषजनक उत्तर पाकर आचार्य श्री बहुत प्रसन्न हुए तथा संक्षेप में उत्तरों की अपने मुख से पुनरावृत्ति करते हुए उन्होंने कहा- “देखो, जिनेन्द्र देव राग होने से किसी के सुख-दुःख के कर्ता-हर्ता नहीं हैं। सर्वज्ञ होने से वे जानते सब कुछ हैं, पर करते कुछ नहीं हैं। हाँ, जो उनकी निष्काम भक्ति करते हैं, उन्हें स्वयं ही ऐसा सातिशय पुण्यबंध होता है और उसके पापों का क्षय होता है, जिससे उन्हें लौकिक और पारलौकिक सुख सहज ही प्राप्त हो जाता है। आचार्य समन्तभद्र ने भी स्वयंभू स्तोत्र में यही कहा है "न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्य गुणस्मृति नः पुनाति चित्तं दुरितान जनेभ्यः ॥ अर्थात् जिनेन्द्र भगवान वीतराग हैं, अतः उन्हें अपनी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं है तथा बैर रहित हैं, अतः निन्दा से भी कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि उनके पवित्र गुणों का स्मरण पापियों के पापरूप मल से मलिन मन को निर्मल कर देता है।" परमात्मा के संदर्भ में आचार्यश्री ने अरहंत पद प्राप्त करने की प्रक्रिया के द्वारा अरहंत का स्वरूप समझाते हुए कहा- “जिन्होंने गृहस्थपना छोड़, मुनिधर्म अंगीकार कर निज स्वभाव साधन द्वारा चार घातिया कर्मों का क्षय करके अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनंतसुख व अनन्त वीर्य रूप अनन्त चतुष्टय प्राप्त कर लिया, वे अरहंत हैं।" अरहंत देव के स्वरूप में वीतरागता और सर्वज्ञता ये दो गुण मुख्य हैं। इन्हें अच्छी तरह समझने से ही हमारी पर कर्तृत्व व भोक्तृत्व की 12 मुनिपद की महिमा मिथ्या मान्यता खण्डित हो जाती है। सर्वज्ञ एवं वीतरागी अरहंत भगवान का यथार्थ ज्ञान होने से हमें ऐसी श्रद्धा हो जाती है कि - जो जो देखी वीतराग ने, सो सो होसी वीरा रे । अनहोनी होसी नहिं कबहूं, काहे होत अधीरा रे ।। समयो एक घटे नहिं बढती, जो सुख-दुःख की पीरा रे । तू क्यों सोच करे मन मूरख, होय वज्र ज्यों हीरा रे ।। ऐसी श्रद्धा से एवं प्रतिदिन पूजा के माध्यम से सर्वज्ञता के स्वरूप का बार-बार चिन्तन होने से यह श्रद्धान दृढ हो जाता है कि 'हमारा जो होनेवाला है, उसे इन्द्र और जिनेन्द्र भी टाल नहीं सकते।' तो फिर आर्तध्यान कर पाप क्यों बाँधे ? ऐसे सोच से हमारी अधीरता (बैचेनी) कम हो जाती हैं, हम शान्त निराकुल हो जाते हैं। अत: हमें प्रतिदिन पूजा तो करना ही है, परन्तु उसका स्वरूप समझकर करनी है। बिना समझे कोरी क्रिया से हमें पूजा का कोई लाभ नहीं होगा। सही तरीके से पूजा-भक्ति करने से उनके गुणों को पहिचानकर एक दिन हम स्वयं भी अरहंत बन सकते हैं, परन्तु अरहंत बनने के पहले निर्ग्रन्थ होना जरूरी है। २३ एक श्रोता ने आचार्यश्री से आज्ञा लेकर विनयपूर्वक विनम्र शब्दों में प्रश्न किया- "गुरुवर ! 'प्रभु पतित पावन' स्तुति में भी तो अरहंत भगवान को 'पतित पावन' और स्वयं को 'अपावन' कहा है, यदि ऐसा मानना मिथ्या है तो इस स्तुति को मान्य क्यों किया गया ? - आचार्यश्री ने समाधान करने के पहले उसी श्रोता से पूछा – “क्या वीतरागी अरहंत भगवान पतितों को पावन कर सकते हैं ? यदि कर सकते हैं तो आदिनाथ ने अपने पोते मारीचि को एक कोड़ाकोड़ी सागर तक संसार में चतुर्गति का दुःख भोगने को क्यों छोड़ा ? क्या अपने सगे पोते पर इतनी भी करुणा नहीं आई ? वे कैसे करुणा सागर थे, अधम उधारक थे? अरे भाई, वास्तव में तो यह ईश्वरवादियों की मान्यता है । वे ईश्वर सृष्टि का कर्त्ता मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार तो सृष्टि स्व संचालित
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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