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चलते फिरते सिद्धों से गुरु मुनिसंघ का देवगढ़ में चातुर्मास होने से आसपास के सभी श्रावक आशान्वित हुए कि अब हमें चार माह तक मुनिराजों के दर्शन तो मिलेंगे ही, धर्मोपदेश का लाभ भी प्राप्त होगा। एक बुजुर्ग व्यक्ति ने सलाह दी कि "हमें संघ से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि वे हमें देव-गुरु-शास्त्र का स्वरूप समझायें, क्योंकि इन विषयों के विषय में समाज अधिक भ्रमित है। जैन होने के कारण समाज सदाचारी तो है, विद्वान भी सदा अष्ट मूलगुणों के धारण करने, सात व्यसनों के त्याग करने, रात्रि भोजन न करने के लाभों से परिचित कराते ही रहते हैं, देवदर्शन-पूजन करने की प्रेरणा भी मिलती रहती है, परन्तु तत्त्वोपदेश मिलना संभव नहीं होता।"
यह सब सोचकर समाज ने मुनिसंघ से तत्त्वोपदेश और देव-गुरु के स्वरूप को समझाने की प्रार्थना की, क्योंकि ये ही सम्यग्दर्शन के हेतु हैं, मोक्षमार्ग के साधन हैं तथा समाज इनसे अनभिज्ञ भी है। ___ आचार्यश्री ने श्रावकों की जिज्ञासा को ध्यान में रखते हुए सर्वप्रथम वीतरागी सर्वज्ञ देव एवं निर्ग्रन्थ गुरु के स्वरूप को समझाने का आश्वासन दिया। सभी उपस्थित लोग मुनि संघ की वन्दना कर हर्षित होते हुए अपने-अपने घर चले गये।
देवगढ़ : देवों का गढ़ अधम-उधारक, सुख का कर्ता और दुःख का हर्ता तथा अपनी सभी लौकिक-अलौकिक-पारलौकिक कामनाओं की पूर्ति करनेवाला मान लेते हैं, जबकि वे वीतरागी हैं, पर के कर्तृत्व की भावना से बहुत ऊपर उठ चुके हैं। इसकारण वे किसी का न भला करते हैं और न बुरा करते हैं। ___ जीवों का भला-बुरा होना और उनकी लौकिक कामनाओं की पूर्ति होना न होना तो उनके पुण्य-पाप कर्म के आधीन है।
देखो, वीतराग देव को पर के सुख-दुःख का दाता, भले-बुरे का कर्ता मानने से अरहंत देव का अवर्णवाद भी होता है, जो दर्शन मोहनीय (मिथ्यात्व) के बंध का कारण है। अत: पूजा करने के पहले पूज्य, पूजा, पूजक और पूजा के फल को भलीभांति समझना होगा।" ___ आचार्यश्री ने आगे कहा - “देखो, पूजा त्रिमुखी प्रक्रिया है। त्रिमुखी प्रक्रिया का अर्थ है। पूजा में तीन अंग मुख्य है । १. पूज्य परमात्मा, जिसकी पूजा की जाती है, २. पूजक, जो पूजा करता है, ३. पूजा की क्रिया/ प्रक्रिया । इन तीनों के विषय में प्रथम तो यह जानना जरूरी है कि पूज्य कैसा है, कौन है, वह क्या कर सकता है? दूसरे, पूजा की विधि क्या है ? पूजा का उद्देश्य क्या है ? पूजन की सामग्री कैसी हो ? पूजा का फल क्या है ? आदि ।
तीसरे, पूजक किस प्रयोजन से पूजा करता है, पूजा में जो कुछ वह बोलता है, उसका भावार्थ समझता है या नहीं ? वह वीतराग देव के सामने खड़ा होकर पूजा के फल में क्या मांगता है? और उसे वस्तुतः क्या फल चाहिए। यदि इन सब प्रश्नों के उत्तर उसे आगम और युक्ति के अनुकूल मिलते हैं, तब तो उसकी पूजा सही है, अन्यथा कोरा अरण्य रुदन है, जैसे निर्जनवन में कोई रुदन करें, आँसू बहाये तो उसे वहाँ उसके कष्ट को कौन सुनने वाला है? इसी तरह वीतराग भगवान के सामने कुछ भी कहो, उन पर क्या प्रतिक्रिया होने वाली है? कुछ भी नहीं। तथा बिना समझे वह पूजक पुण्य के बजाय पापार्जन ही करता है। आज इतनी ही, शेष अगले प्रवचन में।
ॐ नमः। १. तत्त्वज्ञान भाग-२ प्रकाशक पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर
अगले दिन प्रवचन श्रृंखला का शुभारंभ करते हुए आचार्यश्री ने स्वयं अपने मंगल प्रवचन के साथ चातुर्मास की विधिवत् स्थापना की तथा प्रथम दिन देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप और साधना पर प्रवचन देते हुए कहा - "तार्किक शिरोमणि स्वामी समन्तभद्राचार्य ने अपने देवागम स्तोत्र में तीर्थंकर भगवान को भी बिना समझे नमस्कार नहीं किया। अत: हम सभी को भी देव-शास्त्र-गुरु की पूजा करने के पहले उनके स्वरूप को भलीभांति समझना होगा । देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप की यथार्थ पहिचान के बिना मात्र लौकिक कामना की पूर्ति की भावना से पूजा करने से गृहीत मिथ्यात्व जैसा महा पाप लगता है; क्योंकि उनको जाने बिना हम उन्हें पतित पावन,
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