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चलते फिरते सिद्धों से गुरु वहाँ विद्यमान वीतराग मुद्रा युक्त मूर्तियों के दर्शनों से श्रद्धावान श्रावकों और साधकों की कर्मनिर्जरा तो होती ही है, आध्यात्मिक चेतना भी जागृत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्थान वहाँ के जैन समाज ने कभी साधु-संतों, व्रती-ब्रह्मचारियों और घर-परिवार से निवृत्ति लेकर धर्म साधना करनेवालों के लिए ही बनाया होगा, जिसने धीरे-धीरे समय के अनुसार उतार-चढ़ावों को देखते हुए आज यह रूप ले लिया है।
___ सहज संयोग से वहाँ की वंदना करने के लिए एक मुनिसंघ का शुभागमन हुआ, चातुर्मास का समय निकट था, धर्मसाधना की दृष्टि से स्थान और वातावरण उन्हें अनुकूल लगा। अत: मुनिसंघ ने वहाँ ही चातुर्मास की स्थापना करने का निश्चय कर लिया।
मुनिसंघ के चातुर्मास करने के समाचार सुनकर हर्ष से ओत-प्रोत आसपास के सहस्त्रों श्रावकों का मन मयूर नाच उठा, उस क्षेत्र के सम्पूर्ण जैन समाज में हर्ष छा गया। सभी ने संकल्प किया कि 'हम संघ द्वारा दिए गए तत्त्वोपदेश का भरपूर लाभ लेंगे।' जाखलोन जैन समाज के तो मानो भाग्य ही जाग गये। देवगढ़ के निकट होने से उन्हें साधु संघ से प्रवचन सुनने को तो मिलेंगे ही, आहारदान देने का सौभाग्य भी प्राप्त होगा। उन्होंने सोचा हमारे भाग्य से जब ज्ञानगंगा घर आ ही गई है तो इसमें स्नान कर विषय-कषाय की तपन बुझाकर शीतलता प्राप्त क्यों न करें?" - - - - - -
यद्यपि दिगम्बर जैन मुनि एक स्थान पर अधिक नहीं ठहरते; क्योंकि जिस स्थान पर अधिक ठहरेंगे तो वहाँ के व्यक्तियों से उनके रागात्मक संबंध बन जाने की संभावना हो जाती है, जो मुनि भूमिका में अभीष्ट नहीं है। जिस राग का त्याग करने के लिए उन्होंने घर-कुटुम्ब-परिवार छोड़ा है, वही राग की आग सुलगने लगे - ऐसा मौका ही वे क्यों दें? अत: वे एकान्त में, निर्जन स्थान में रहना ही पसंद करते हैं। फिर भी बारिश की ऋतु में जीवराशि की प्रचुर उत्पत्ति के कारण
देवगढ़ : देवों का गढ़ अहिंसा व्रत की रक्षार्थ उन्हें एक ही स्थान पर रुकना अनिवार्य हो जाता है। ऐसी स्थिति में वे श्रावकों के सम्पर्क में कम से कम रहने का प्रयत्न करते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि समाज और श्रावक समस्याओं के पुंज होते हैं। वे सोचते हैं “सन्तों से हमें हमारी समस्याओं का समाधान अवश्य मिलेगा" इसकारण वे बड़ी आशा लेकर सन्तों के पास पहुँचते हैं और उनके प्रभाव का लाभ लेना चाहते हैं; परन्तु इससे मुनिराजों के समय का दुरुपयोग तो होता ही है, उपयोग भी खराब होता है - यह बात मुनिराज भी भलीभांति समझते हैं, अत: वे श्रावकों से दूर ही रहना चाहते हैं। इसीकारण वे नगर से दूर, नसिया, वसतिका आदि में ठहरते हैं। प्राचीन काल में ये स्थान श्रावकों द्वारा साधु-सन्तों के निमित्त ही बनवाये जाते थे।
यद्यपि वहाँ उपवन में वन जैसा ही वातावरण होने से उन्हें डांसमच्छर खाते हैं, पर वे परीषहजयी तो होते ही हैं, साथ में यह भी सोचते हैं कि “यहाँ डांस-मच्छर तो शरीर को ही खाते हैं, पर नगरों में तो ये मानव माथा खाते हैं, उपयोग खराब करते हैं, अत: इनसे दूर निर्जन स्थान में रहना ही श्रेष्ठ है।" __ मुनिराजों के ठहरने का स्थान वही सर्वोत्तम होता है जो नगर या ग्राम से न अति दूर हो और न अति निकट, ताकि उन्हें आहार हेतु कठिनाई न हो तथा जिज्ञासु जीवों को संघ के सान्निध्य में उपदेश का लाभ लेने में भी कठिनाई न हो। मातायें, बहिनें और वृद्ध लोग सरलता से पहुँच सकें। ___ मुनिराज मात्र आहार के निमित्त नगर में आते हैं, उस समय भी सिंहवृत्ति से मौन लेकर आते हैं और नवधा भक्ति से पड़गाहन के बाद निर्दोष विधिपूर्वक खड़े-खड़े आहार लेकर चले जाते हैं। किसी से किसी भी प्रकार की कोई बातें नहीं करते।
हाँ, यदा-कदा करुणाबुद्धि से तत्त्वोपदेश देते हैं, उसमें भी कोई लौकिक चर्चा नहीं करते । तत्त्वोपदेश भी अपनी सभी दैनिक चर्या-सामायिक आदि को निर्बाध रूप से यथासमय सम्पन्न करते हुए सुविधानुसार ही करते हैं। मुनिराज श्रावकों के किन्हीं भी आयोजनों में समय पर पहुँचने के लिए श्रावकों से वचनबद्ध नहीं होते।
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