________________ चलते फिरते सिद्धों से गुरु __वे मुनिवर कब मिली हैं उपगारी / साधु दिगम्बर, नग्न निरम्बर, संवर भूषण धारी ।।टेक / / कंचन-काँच बराबर जिनके, ज्यों रिपु त्यों हितकारी। महल मसान, मरण अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी / / वे मुनिवर कब मिली हैं उपगारी / / 1 / / सम्यग्ज्ञान प्रधान पवन बल, तप पावक परजारी। शोधत जीव सुवर्ण सदा जे, काय-कारिमा टारी / / वे मुनिवर कब मिली हैं उपगारी / / 1 / / जोरि युगल कर 'भूधर' विनवे, तिन पद ढोक हमारी। भाग उदय दर्शन जब पाऊँ, ता दिन की बलिहारी / / वे मुनिवर कब मिली हैं उपगारी / / 1 / / गुरु-वंदना धरि कवच संयम उग्रध्यान, कठोर असि निज हाथ ले; व्रत, समिति, गुप्ति, सुधर्म, भावन, वीर भट भी साथ ले। परचक्र राग-द्वेष हनि, स्वातंत्र्य निधि पाते हुए; वे स्वपर तारक गुरु तपोनिधि, मुक्ति पथ जाते हुए / / निसंग हैं जो वायुसम, निर्लेप हैं आकाश से; निज आत्म में ही विहरते, जीवन न पर की आस से। जिनके निकट सिंहादि पशु भी, भूल जाते क्रूरता; उन दिव्य गुरुओं की अहो! कैसी अलौकिक शूरता / / 110